ताऊ की चौपाल मे आपका स्वागत है. ताऊ की चौपाल मे सांस्कृतिक, राजनैतिक और ऐतिहासिक विषयों पर सवाल पूछे जायेंगे. लेकिन किसी भी तरह के विद्वेष फ़ैलाने वाले सवाल जवाब नही होंगे. आशा है आपको हमारा यह प्रयास अवश्य पसंद आयेगा.
सवाल के विषय मे आप तथ्यपुर्ण जानकारी हिंदी भाषा मे, टिप्पणी द्वारा दे सकें तो यह सराहनीय प्रयास होगा.
आज का सवाल नीचे दिया है. इसका जवाव और विजेताओं के नाम अगला सवाल आने के साथ साथ, इसी पोस्ट मे अपडेट कर दिया जायेगा.
आज का सवाल हमारा सिल्वर जुबिली सवाल है. सभी सही उत्तर देने वालों को प्रमाण पत्र दिया जायेगा.
आज का सवाल :-
आचार्य द्रोण और द्रुपद की दुश्मनी क्यों हुई?
अब ताऊ की रामराम.
8 comments:
23 December 2009 at 08:28
आचार्य द्रोणका अपमान उनके सहपाठी पञ्चाल नरेश द्रुपद ने यह कहकर कर दिया कि ‘एक राजा की तुम्हारे-जैसे- श्रीहीन और निर्धन मनुष्य के साथ कैसी मित्रता .इस तरह राजा द्रुपद से अपमानित हो बदला लेने की भावना से आचार्य द्रोण हस्तिनापुर में राजकुमारों को अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देने लगे। राजा द्रुपद का व्यवहार इन्हें सदैव दुःख देता था। एक दिन आचार्य द्रोणने अपने शिष्यों से कहा कि मेरे मन में एक कार्य करने की इच्छा है। शिक्षा प्राप्त करने के बाद कौन उसे पूरा करेगा ? सब चुप हो गये; परन्तु अर्जुन ने उस कार्य को पूरा करने का संकल्प किया। इस पर प्रसन्न होकर आचार्य ने उन्हें अपना सर्वश्रेष्ठ शिष्य होने का आशीर्वचन दिया।
regards
23 December 2009 at 08:37
गुरू-दक्षिणा के रू प में, अर्जुन ने द्रुपद को बंदी बनाकर, लाकर द्रोणाचार्य के चरणों में डाल दिया। द्रोण की प्रतिहिंसा इतने से ही शांत नहीं हुई।...यदि द्रुपद ने उनका अपमान किया था, तो क्या द्रोण ने द्रुपद को पर्याप्त अपमानित नहीं कर लियाक् किंतु द्रोण ने, द्रुपद का आधा राज्य उससे ले लिया। आधा पंचाल। अहिछत्र और उसके साथ लगता सारा जनपद। तब छोड़ा द्रुपद को!... द्रोण को उनकी गुरू-दुक्षिणा मिल गई।
regards
23 December 2009 at 08:39
भीष्म, द्रोणाचार्य, और द्रुपद परशुराम के शिष्य थे। शिक्षा काल में द्रुपद और द्रोण की गहरी मित्रता थी। द्रोण गरीब होने के कारण प्राय: दुखी रहते थे तो द्रुपद ने उन्हें राजा बनने पर आधा राज्य देने का वचन दिया परंतु कालांतर में वे अपने वचन से न केवल मुकर गए वरन उन्होंने द्रोण का अपमान भी किया।
द्रोण ऐसे शिष्य की तलाश में निकल पड़े जो द्रुपद और उसकी विशाल सेना को हराकर उनके अपमान का बदला ले। पांडव और कौरव बालकों की गेंद कुंए में गिरी तो द्रोण ने अनेक तिनके श्रंखला के रूप में कुंए में डालकर उनकी गेंद निकाली।
इसके बाद वे उनके गुरु बन गए और शिक्षा पूरी होने पर उन्होंने शिष्यों से गुरु दक्षिणा के तौर पर द्रुपद को हराने की बात कही। शिष्य द्रुपद को बंदी बनाकर लाए तो द्रोण ने अपने अपमान का बदला लेकर क्षमा स्वरूप उसका राज्य उसे लौटा दिया। अपमानित द्रुपद ने तप करके पुत्री याज्ञसेनी अर्थात द्रौपदी को पाया और कालांतर में इसी यज्ञ की अग्नि से उत्पन्न द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने ही द्रोणाचार्य का वध किया था।
regards
23 December 2009 at 08:58
ताऊ सुबह सुबह दुशमनी की बात न करें तो अच्छा है। शुभकामनायें
23 December 2009 at 09:58
किसने कहा.. वो तो पक्के दोस्त थे.. बस कभी कभी यु ही चुहलबाजी कर लेते थे...
23 December 2009 at 09:59
ताऊ आज ताला लगा दिया...
बहुत नाइंसाफी है...
23 December 2009 at 10:16
दुर्पद और द्रोणा जब भरद्वाज के शिष्य थे तो दोनों ख़ास मित्र थे १ दुर्पद तो यहाँ तक कहता था कि जब वह अपने पिता का राजकाज (पांचाल ) संभालेगा तो आधा राज्य द्रोर्ण को दे देगे १ लेकिन बड़े होकर जब एक दिन गरीब द्रोर्ण दुर्पद के दरवार में गए तो दुर्पद ने उन्हें बेइज्जत किया और कहा कि एक गरीब की कैसे हिम्मत हुई एक राजा को दोस्त समझने की ! बस तभी से दोनों दुश्मन बन गए !
23 December 2009 at 11:48
आचार्य द्रोण और द्रुपद की दुश्मनी :
महाभारत की कथा के अनुसार द्रोणाचार्य ऋषि भारद्वाज के पुत्र और धर्नुविद्या निपुण परशुराम के शिष्य थे। अपने पिता के आश्रम में ही रहते हुये वे चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गये। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे । शिक्षा काल में द्रुपद और द्रोण की गहरी मित्रता थी।
शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका पुत्र अश्वत्थामा हुआ।
किसी प्रकार का राजाश्रय प्राप्त न होने के कारण द्रोण अपनी पत्नी कृपी तथा पुत्र अश्वत्थामा के साथ निर्धनता के साथ रह रहे थे। एक दिन उनका पुत्र अश्वत्थामा दूध पीने के लिये मचल उठा किन्तु अपनी निर्धनता के कारण द्रोण पुत्र के लिये गाय के दूध की व्यवस्था न कर सके। अकस्मात् उन्हें अपने बाल्यकाल के मित्र राजा द्रुपद का स्मरण हो आया जो कि पांचाल देश के नरेश बन चुके थे। द्रोण ने द्रुपद के पास जाकर कहा, "मित्र! मैं तुम्हारा सहपाठी रह चुका हूँ। मुझे दूध के लिये एक गाय की आवश्यकता है और तुमसे सहायता प्राप्त करने की अभिलाषा ले कर मैं तुम्हारे पास आया हूँ।" इस पर द्रुपद अपनी पुरानी मित्रता को भूलकर तथा स्वयं के नरेश होने अहंकार के वश में आकर द्रोण पर बिगड़ उठे और कहा, "तुम्हें मुझको अपना मित्र बताते हुये लज्जा नहीं आती? मित्रता केवल समान वर्ग के लोगों में होती है, तुम जैसे निर्धन और मुझ जैसे राजा में नहीं। अपमानित होकर द्रोण वहाँ से लौट आये ।
एक दिन युधिष्ठिर आदि राजकुमार जब गेंद खेल रहे थे तो उनकी गेंद एक कुएँ में जा गिरी। उधर से गुजरते हुये द्रोणाचार्य ने तत्काल एक मुट्ठी सींक लेकर उसे मन्त्र से अभिमन्त्रित किया और एक सींक से गेंद को छेदा। फिर दूसरे सींक से गेंद में फँसे सींक को छेदा। इस प्रकार सींक से सींक को छेदते हुये गेंद को कुएँ से निकाल दिया। इस अद्भुत प्रयोग के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों के उच्च शिक्षा के नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया ।
जब पाण्डव तथा कौरव राजकुमारों की शिक्षा पूर्ण हो गई तो उन्होंने द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा देना चाहा। द्रोणाचार्य को द्रुपद के द्वारा किये गये अपने अपमान का स्मरण हो आया और उन्होंने राजकुमारों से कहा, "राजकुमारों! यदि तुम गुरुदक्षिणा देना ही चाहते हो तो पाञ्चाल नरेश द्रुपद को बन्दी बना कर मेरे समक्ष प्रस्तुत करो।
गुरुदेव के इस प्रकार कहने पर समस्त राजकुमार अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र ले कर पाञ्चाल देश की ओर चले। पहले कौरवों ने आक्रमण किया, कौरवों के परास्त होने के उपरान्त पाण्डवों ने आक्रमण आरम्भ कर दिया। भीमसेन तथा अर्जुन के पराक्रम के समक्ष पाञ्चाल नरेश की सेना हार गई। अर्जुन ने आगे बढ़ कर द्रुपद को बन्दी बना लिया और गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष ले आये।
द्रुपद को बन्दी के रूप में देख कर द्रोणाचार्य ने कहा, "हे द्रुपद! अब तुम्हारे राज्य का स्वामी मैं हो गया हूँ। तुमने कहा था कि मित्रता समान वर्ग के लोगों में होती है। अतः मैं तुमसे बराबरी का मित्र भाव रखने के लिये तुम्हें तुम्हारा आधा राज्य लौटा रहा हूँ।" इतना कह कर द्रोणाचार्य ने गंगा नदी के दक्षिणी तट का राज्य द्रुपद को सौंप दिया और शेष को स्वयं रख लिया। गुरु द्रोण से पराजित होने के उपरान्त महाराज द्रुपद अत्यन्त लज्जित हुये, अपने इस अपमान को द्रुपद कभी नहीं भूले !
बाद में महाभारत युद्ध के समय द्रुपद के पुत्र द्रष्टद्युम्न ने द्रोणाचार्य का वध करके अपने पिता के अपमान का बदला लिया ।
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