ताऊ की चौपाल : दिमागी कसरत - 30

ताऊ की चौपाल मे आपका स्वागत है. ताऊ की चौपाल मे सांस्कृतिक, राजनैतिक और ऐतिहासिक विषयों पर सवाल पूछे जायेंगे. आशा है आपको हमारा यह प्रयास अवश्य पसंद आयेगा.

सवाल के विषय मे आप तथ्यपुर्ण जानकारी हिंदी भाषा मे, टिप्पणी द्वारा दे सकें तो यह सराहनीय प्रयास होगा.


आज का सवाल नीचे दिया है. इसका जवाव और विजेताओं के नाम अगला सवाल आने के साथ साथ, इसी पोस्ट मे अपडेट कर दिया जायेगा.


आज का सवाल :-

"संथारा"किसे कहते हैं?


अब ताऊ की रामराम.



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Promoted By : ताऊ और भतीजाएवम कोटिश:धन्यवाद

12 comments:

  seema gupta

28 December 2009 at 08:25

संथारा अर्थातï् समत्व साधना द्वारा समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण।
regards

  Udan Tashtari

28 December 2009 at 08:30

संथारा अर्थात समत्व साधना द्वारा समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण।

regards


ha haa haa!!


अब कम्पलीट हुआ...उपर के कमेंट में हा हाह हा!! नहीं है इसलिए अमान्य!! :)

  seema gupta

28 December 2009 at 08:31

जीवन के अन्तिम क्षणों में मनुष्य जीवन के प्रति मोह तज कर हर प्रकार के खान-पान एवं यहां तक पानी का भी आजीवन त्याग कर देता है और समभाव से जीवन और मृत्यु को समझता है, जैन धर्म अनुसार इसे संथारा कहा जाता है।

कई लोग संथारे को पण्डित मरण भी कहते है। क्योंकि संथारे वाले व्यक्ति की चेतना भगवान में लीन हो जाती है और उसका सांसारिक जीवन मोह भंग हो जाता है।
regards

  श्यामल सुमन

28 December 2009 at 08:34

जैन सम्प्रदाय में इच्छित मृत्यु की प्राप्ति के लिए जब अन्न-पानी का लगातार त्याग करके मृत्यु प्राप्त किया जाता है उसे संथारा कहते हैं।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

  RAJNISH PARIHAR

28 December 2009 at 09:51

ऊपर सीमा जी और श्यामल जी ने सही जवाब व्याख्या सहित दे दिया है..समत्व साधना द्वारा समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण।
बधाई.....

  हें प्रभु यह तेरापंथ

28 December 2009 at 12:08

जैन धर्म को अधिक से जानने के लिऎ हे प्रभु यह तेरापन्थ हिन्दी ब्लोग को पढा करीए.

  हें प्रभु यह तेरापंथ

28 December 2009 at 12:13

@श्यामल सुमन said...
जैन सम्प्रदाय में इच्छित मृत्यु की प्राप्ति के लिए जब अन्न-पानी का लगातार त्याग करके मृत्यु प्राप्त किया जाता है उसे संथारा कहते हैं।

कोई भी इच्छा को रखकर सन्थारा ग्रहण नही करना चाहिऎ. निग्रह भावना आवस्यक है. यह तप साधना का अभिन्न अन्ग है.

  हें प्रभु यह तेरापंथ

28 December 2009 at 12:20

अबचिन्ता की कोई बात नही पहेलिया जितने की महिला चेम्पियन सीमा जी एवम पहेलीयो को दाऎ हाथ से मसल कर पहेलीयो का चुरमा बनाने वाले श्री श्री श्री पहेलीयो के पहलवान समीरलालजी पहेळीवाले आ गऎ है. दोनो को साथ देख हमारी तो घीघी बन गई है, क्यो मुरारी भाऊ ? हम ठीक कहता हू ना ?

  संजय बेंगाणी

28 December 2009 at 12:30

संथारे का अर्थ बहुतों ने लिख दिया है. मैं इतना जोड़ना चाहता हूँ कि आत्महत्या में और संथारे में बुनियादी फर्क है. आत्महत्या के समय रोष, द्वैष, निराशा के भाव होते है, लगभग सोचने समझने की क्षमता समाप्त होती है. कुछ समय के लिए रोका जाय तो विचार बदल सकते है. जबकि संथारे में इससे उलट होता है.

  MUMBAI TIGER मुम्बई टाईगर

28 December 2009 at 12:41

संजय बेंगाणीजी जय जिनेन्द्र सा!
बहुत अच्छी बात टीप्पणी के माध्यम से जानने को मिली है. वैसे हमारा ताऊ भी पुरा का पुरा जैन है ? अब एक दिन ताऊ को सन्थारा दिलाके ही रहुगा..... पर यार डरता हू सन्थारे मे भी दिमाग का मीटर इधर उधर घुमाऎ बिना रहेगा नही ताउ......! ताऊ सन्थारे मे तिए-पाचे ना कर दे इस बात का डर है..

mahaveer b semlani

  MAHAVEER B SEMLANI

28 December 2009 at 12:53

सल्लेखना व्रत (संथारा)
सल्लेखना व्रत (संथारा) में दो शब्दों का योग है. -- सत+लेखना !
सत का मतलब सम्यक तथा लेखना का अर्थ सार संभाल करना!
इस सन्दर्भ में लेखना का अर्थ व्यक्ति के द्वारा अपने जीवन में क्रिया-कलापों को त्यागते हुए शरीर को क्रमश: त्याग करते हुए कृश
करना है. अर्थात साधू अथवा श्रावक आहार का क्रमश: त्याग करते हुए मरण को प्राप्त करता है. उसे सल्लेखना या संथारा कहते है. जैन धर्म एव दर्शन अपने वैशिष्ट्य को लिए हुए अनादिकाल से निरंतर गतिशील है. विभिन्न मान्यताओं एवं सिद्धांतो को लिए हुए यह दर्शन जन्म से लेकर मृत्यू पर्यन्त साधना के अनेक पृष्ठो को उदघाटित करता है. इसके मूल में समता, अभय, निर्ममत्व , अमूर्च्छा , अपरिग्रह , आदि भावनाए विधिमान रहती है. बह्रा जगत से निस्पृही होने के साथ -साथ स्वय के शरीर से जब मोह समाप्त हो जाता है, तब आहार पानी का त्याग कर अपने आप को कृश करते हुए समाप्त किये जाने की कला जैन परम्परा में मानी है. जिसे सल्लेखना (संथारा) कहा जाता है भारतीय परम्परा में इसे "समाधि" सब्द से जाना जाता है. जैन परम्परा में जिने की कला शिकाई जाती है वहा मरने की कला भी सिखाई जाती है. संथारा आत्मशुद्धि का लक्ष्य है. इसमे किसी प्रकार का दबाव व् परवशता नहीं है. आत्महत्या में कष्ट व् आवेश का दबाव होता है , आत्महत्या जीवन से उब कर अविवेकपूर्ण लिया गया निर्णय है. संथारा अत्यंत सोच समझकर प्रसंता पूर्वक लिया हुआ निर्णय है.
संथारा एक तप है. इसे न तो दिखावा न प्रथा, ना ही आत्महत्या की परिधि में लिया जा सकता है . इसका उद्देश्य मात्र अनाशक्ति के क्षण में जीना है. शरीर के प्रति अनासक्त हो समाधिपूर्वक तप करना -- संथारा है.

संथारा व्रत
मै इस सल्लेखना (संथारा) व्रत की पूरी आराधना करने के लिए निम्नं अतिक्रमणों से बचता रहूगा.
१. इहलोक सम्बन्धी सुखो की अभिलाषा.
२. परलोक सम्बन्धी सुखो की अभिलाषा
३. जिने की अभिलाषा
४. मरने की अभिलाषा
५ काम भोग की अभिलाषा.

प्रस्तुतकर्ता महावीर बी. सेमलानी पर १:२१ AM | लेबल: (संथारा )

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