ताऊ की चौपाल मे आपका स्वागत है. ताऊ की चौपाल मे सांस्कृतिक, राजनैतिक और ऐतिहासिक विषयों पर सवाल पूछे जायेंगे. आशा है आपको हमारा यह प्रयास अवश्य पसंद आयेगा.
सवाल के विषय मे आप तथ्यपुर्ण जानकारी हिंदी भाषा मे, टिप्पणी द्वारा दे सकें तो यह सराहनीय प्रयास होगा.
आज का सवाल नीचे दिया है. इसका जवाव और विजेताओं के नाम अगला सवाल आने के साथ साथ, इसी पोस्ट मे अपडेट कर दिया जायेगा.
आज का सवाल :-
उडीसा मे वैष्णव भक्ति गौडिय संप्रदाय के प्रसारक कौन थे?
अब ताऊ की रामराम.
उत्तर :-
सही जवाब है चैतन्य महाप्रभु,
और सही जवाब दिये हैं...
रंजन
उडनतश्तरी
सीमा गुप्ता
मुरारी पारीक
जाकिर अली "रजनीश"
प्रकाश गोविंद और
हीरल ने
चैतन्य महाप्रभु के बारे मे अधिक जानकारी के लिये इसी पोस्ट की सीमा गुप्ता जी की टिप्पणियां इसी पोस्ट पर पढ सकते हैं.
18 comments:
4 December 2009 at 09:17
कोई जबाब नहीं...अब तक..
चैतन्य महाप्रभु
4 December 2009 at 09:18
सुबह समय से ओफिस आने आ फायदा नं १..
4 December 2009 at 09:24
Narottam dasa Thakura
regards
4 December 2009 at 09:29
4 December 2009 at 09:42
सीमा गुप्ता जी के जबाब से सहमत !!
4 December 2009 at 09:54
चैतन्य महाप्रभु
regards
4 December 2009 at 09:56
चैतन्य महाप्रभु सन्यास लेने के बाद जब गौरांग पहली बार जगन्नाथ मंदिर पहुंचे, तब भगवान की मूर्ति देखकर ये इतने भाव-विभोर हो गए, कि उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे, व मूर्छित हो गए। [२] संयोग से तब वहां उपस्थित प्रकाण्ड पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य महाप्रभु की प्रेम-भक्ति से प्रभावित होकर उन्हें अपने घर ले गए। घर पर शास्त्र-चर्चा आरंभ हुई, जिसमें सार्वभौम अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने लगे, तब श्रीगौरांग ने भक्ति का महत्त्व ज्ञान से कहीं ऊपर सिद्ध किया व उन्हें अपने षड्भुजरूपका दर्शन कराया। सार्वभौम तभी से गौरांग महाप्रभु के शिष्य हो गए और वह अन्त समय तक उनके साथ रहे। पंडित सार्वभौम भट्टाचार्य ने गौरांक की शत-श्लोकी स्तुति रची जिसे आज चैतन्य शतक नाम से जाना जाता है। [२]उड़ीसा के सूर्यवंशी सम्राट, गजपति महाराज प्रताप रुद्रदेव ने इन्हें श्रीकृष्ण का अवतार माना, और इनका अनन्य भक्त बन गया।
4 December 2009 at 09:58
चैतन्य महाप्रभु भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं । इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी । भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया । चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन 1486 की फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक उस गांव में हुआ, जिसे अब मायापुर कहा जाता है । बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें निमाई कहकर पुकारते थे । गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर आदि भी कहते थे । चैतन्य महाप्रभु के द्वारा गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की आधारशिला रखी गई । उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है ।
regards
4 December 2009 at 09:59
इनका पूरा नाम विश्वम्भर विश्र और कहीं श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्र मिलता है। चैतन्य ने चौबीस वर्ष की उम्र में वैवाहिक जीवन त्याग कर संन्यास ग्रहण कर लिया था। वे कर्मकांड के विरोधी और श्रीकृष्ण के प्रति आस्था के समर्थक थे। चैतन्य मत का एक नाम 'गोडीय वैष्णव मत' भी है। चैतन्य ने अपने जीवन का शेष भाग प्रेम और भक्ति का प्रचार करने में लगाया। उनके पंथ का द्वार सभी के लिए खुला था। हिंदू और मुसलमान सभी ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। उनके अनुयायी चैतन्यदेव को विष्णु का अवतार मानते हैं। अपने जीवन के अठारह वर्ष उन्होंने उड़ीसा में बिताये। छह वर्ष तक वे दक्षिण भारत, वृन्दावन आदि स्थानों में विचरण करते रहे। 48 वर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया। मृदंग की ताल पर कीर्तन करने वाले चैतन्य के अनुयायियों की संख्या आज भी पूरे भारत में पर्याप्त है।
regards
4 December 2009 at 10:42
राम राम ताऊ जी अब नकल मारने का क्या फायदा? चलती हूँ
4 December 2009 at 10:55
उपस्थिति दर्ज हो. जवाब पहले ही दिया जा चुका है. कॉपी पेस्ट ठीक है मगर उड़न तश्तरी हिन्दी में जवाब दे :)
4 December 2009 at 11:38
आज तो इतना सुन्दर और विस्तृत जवाब मिल चूका है कि बताने को कुछ बचा ही नहीं ! मुरारी जी और सीमा जी ने बहुत ही अच्छी जानकारी दी ! दोनों का आभार !
बस मामूली सी जानकारी और :
चैतन्य महाप्रभु के बचपन का नाम विश्वंभर था। लोग इन्हें निमाई नाम से भी पुकारते थे।
पिता पण्डित जगन्नाथ मिश्र तथा माता शची देवी की ये दसवीं संतान थे। गंगादास गुरु थे। निमाई अति कुशाग्र एवं प्रखर बुद्धि के थे। व्याकरण, अलंकार, तंत्रशास्त्र, न्यायशास्त्र का गहन अध्ययन किया। चैतन्य महाप्रभु १६वीं शताब्दी के ऐसे कालपुरुष थे जिन्होंने भक्ति के माध्यम समाज से को जागृत किया। चैतन्य ने कुसंस्कार और आडंबर के खोल में बंद हो रहे भारत में भक्ति से एकता का अलख जगाया ।
सभी पाठकों से एक प्रश्न मेरा भी है - क्या आपने 'आंडाल' का नाम सुना है ?
4 December 2009 at 11:42
देखादेखी ही बता रहा हूँ चैतन्य महाप्रभु।
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सांसद/विधायक की बात की तनख्वाह लेते हैं?
अंधविश्वास से जूझे बिना नारीवाद कैसे सफल होगा ?
4 December 2009 at 12:19
@ Prakash ji
दक्षिण की मीरा - आंडाल
दक्षिण भारत में श्री विल्लीपुत्तूर नामक एक प्रसिद्ध तीर्थ है। वह राज्य के रामनाद जिले में है। वहां विष्णु का एक पुराना मंदिर है, लेकिन लोग उस मंदिर को ही देखने के लिए वहां नहीं जाते हैं। श्री विल्लीपुत्तूर का नाम इसलिए प्रसिद्ध हुआ है कि वह दक्षिण की एक महान भक्त-कवयित्री आंडाल की जन्मभूमि है। उत्तर भारत में जिस तरह मीरा के पदों का प्रचार है, उसी तरह दक्षिण भारत में आंडाल के पद घर-घर गाये जाते हैं दक्षिण के हर विष्णु मंदिर में उसकी मूर्ति प्रतिष्ठित है और लोग श्रद्धा से उसकी पूजा करते हैं।
regards
4 December 2009 at 12:25
आज से कोई तेरह सौ साल पहले श्रीविल्लीपुत्तूर में एक आलवार भक्त रहते थे। उनका असली नाम वैसे विष्णुचित्त था, किन्तु लोग उनको पेरियालवार कहते थे। आलवार दक्षिण के प्राचीन वैष्णव भक्तों को कहते हैं,
जिनकी संख्या बारह है। बारहों आलवारों में पेरियालवार का बहुत ऊंचा स्थान है। पेरियालवार शब्द का अर्थ ही होता है—महान आलवार। आंडाल उन्हीं की पालिता कन्या थी।
आँडाल और मीरा दोनों ही कृष्ण के प्रेम-रस में सराबोर थीं। दोनों ही कृष्ण को अपना प्रियतम मानती थी। दोनों उन्हीं की प्रेम-भावना में जीवनभर बेसूध रहीं। दोनों के ही मधुर पद जन-जन के कण्ड में बसे हुए हैं।
regards
4 December 2009 at 15:04
प्रकाश जी अंडाल तो वेस्ट बंगाल में एक शहर का नाम है जो की दुर्गापुर के पास स्थित है!!!
4 December 2009 at 18:52
उम्मीद तो नहीं थी कि किसी से जवाब मिल पायेगा किन्तु आदरणीय सीमा जी ने आंडाल के विषय में इतनी विस्तृत और सुव्यवस्थित जानकारी देकर अभिभूत तो किया ही साथ ही चकित भी !
आभार & धन्यवाद
सीमा जी कभी तो हार मान लिया करिए :)
आपको सैल्यूट है जी
4 December 2009 at 22:29
ये चैतन्य महाप्रभु ही थे।
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