वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता मे : श्री जी. के. अवधिया

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,

हमें वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता के लिये निरंतर बहुत से मित्रों की प्रविष्टियां प्राप्त हो रही हैं. जिनकी भी रचनाएं शामिल की गई हैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से सूचित कर दिया गया है. ताऊजी डाट काम पर हमने प्रतियोगिता में शामिल रचनाओं का प्रकाशन शुरु कर दिया है जिसके अंतर्गत आज श्री जी. के. अवधिया की रचना पढिये.

आपसे एक विनम्र निवेदन है कि आप अपना संक्षिप्त परिचय और ब्लाग लिंक प्रविष्टी के साथ अवश्य भेजे जिसे हम यहां आपकी रचना के साथ प्रकाशित कर सकें. इस प्रतियोगिता मे आप अपनी रचनाएं 30 अप्रेल 2010 तक contest@taau.in पर भिजवा सकते हैं.

लेखक परिचय :-
नाम : जी.के. अवधिया
उम्र : 59 वर्ष, सेवानिवृत
शहर : रायपुर (छ्ग)

मैं एक संवेदनशील, सादे विचार वाला, सरल, सेवानिवृत व्यक्ति हूँ। मुझे अपनी मातृभाषा हिंदी पर गर्व है। आप सभी लोगों का स्नेह प्राप्त करना तथा अपने अर्जित अनुभवों तथा ज्ञान को वितरित करके आप लोगों की सेवा करना ही मेरी उत्कृष्ट अभिलाषा है।

लिखता क्या था, अपने आपको ब्लोगर शो करता था

मेरे सामने ही मेरी लाश पड़ी थी और मैं उसे अकचका कर देख रहा था।

शायद रात में ही किसी समय मेरे प्राण पखेरू उड़ गये थे।

अब मैं अपने ही मृत शरीर को देखते हुए यमदूतों के आने की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ देर बाद मेरे लड़के की नींद खुली। मैंने उसे पुकारा किन्तु उसे सुनाई नहीं पड़ा। आखिर सुनाई पड़ता भी कैसे? मैं तो अब आत्मा था। मैं उसे देख-सुन सकता था पर वह मुझे नहीं।

वो तो हकबकाये हुये मेरे मृत शरीर को देख रहा था। कुछ देर के बाद उसे कुछ सूझा और उसने घर के सभी लोगों को जगाना शुरू कर दिया। सभी लोग सुबह-सुबह की मीठी नींद का आनन्द ले रहे थे अतः इस प्रकार नींद में खलल डालना उन्हें अच्छा नहीं लगा और वे कुनमुनाने लग गये।

उन्हें जबरदस्ती उठा कर लड़के ने कहा, "तुम लोगों को कुछ पता भी है? पापा तो रेंग गये।"

"ये क्या कह रहे हैं आप? रात को तो अच्छे भले थे।" बहू ने कहा।

"बिल्कुल ठीक कह रहा हूँ। जाकर देख लो।" यह कह कर लड़का रिश्तेदारों को फोन लगाने लग गया।

घर के लोगों ने मेरे शरीर को बिस्तर से उठा कर उत्तर दिशा की ओर सिर रख कर जमीन पर लिटा दिया। औरतें उस शरीर को चारों ओर घेर कर बैठ गईं।

बहू ने कहा, "अभी-अभी पिछले हफ्ते तो ही ये बिस्तरा खरीदा था बड़े शौक से अपने लिये। इनका बिस्तर कल धोने के लिये गया था इस कारण से ये बिस्तर इनके लिये लगा दिया था। अब तो दान में देना पड़ेगा इस बिस्तर को। बहुत अखरेगा।"

इस पर उसकी चाची-सास अर्थात् मेरे भाई की पत्नी ने कहा, "कोई जरूरत नहीं है नये बिस्तरे को दान-वान में देने की। जल्दी से इसे अन्दर रख दो और वो जो पुराना फटा वाला बिस्तर है उसे यहाँ लाकर कोने में रख दो।"

रिश्तेदार आने शुरू हो गये।

किसी ने कहा, "सुना है कि कुछ लिखते विखते भी थे।"

मेरे मित्रों में से एक ने, जो कि अपने आप को बहुत बड़ा लेखक समझते थे, कहा, "लिखता क्या था, अपने आपको ब्लोगर शो करता था। उसके लिखे को यहाँ कोई पूछता नहीं था इसलिये इंटरनेट में जबरन डाल दिया करता था।"

एक सज्जन बोले, "अब जैसा भी लिखते रहे हों, जो भी करते रहे हों, मरने के बाद तो कम से कम उनकी बुराई तो मत करो।"

मित्र ने कहा, "बुराई कौन साला कर रहा है? अब किसी के मर जाने पर सच्चाई तो नहीं बदल जाती! सच तो यह है कि उम्र भले ही साठ से अधिक की हो गई हो पर बड़प्पन नाम की चीज तो छू भी नहीं गई थी उसे। हमेशा अपनी ही चलाने की कोशिश करता था। एक नंबर का अकड़ू था। जो कोई भी उससे मिलने आ जाता उसे जबरन अपने पोस्ट पढ़वाता था। दूसरों का लिखा तो कभी पढ़ता ही नहीं था। खैर आप मना कर रहे हैं तो अब आगे और मैं कुछ नहीं कहूँगा।"

मेरे लड़के ने कहा, "पापा तो साठ साल से भी अधिक जीवन बिताकर गए हैं यह तो खुशी की बात है। नहीं तो आजकल तो लोग पैंतालीस-सैंतालीस में ही सटक लेते हैं। हमें किसी प्रकार का गम मना कर उनकी आत्मा को दुःखी नहीं करना है, बल्कि लम्बी उमर सफलतापूर्वक जीने के बाद उनके स्वर्ग जाने की खुशी मनाना है। आप लोग बिल्कुल गम ना करें।"

मेरे भाई के लड़के ने कहा, "भैया बिल्कुल सही कह रहे हैं। अब हमें चाचा जी का क्रिया-कर्म बड़े धूम-धाम से करना है। पुराने समय में दीर्घजीवी लोगों की शव-यात्रा बैंड बाजे के साथ होती थी। हम भी बैंड बाजे का प्रबंध करेंगे।"

"पर आजकल तो बैंड बाजे का चलन ही खत्म हो गया है, कहाँ से लाओगे बैंड बाजा?" एक रिश्तेदार ने प्रश्न किया।

"तो फिर ऐसा करते हैं कि डीजे ही ले आते हैं।"

"पर भजन-कीर्तन वाला डीजे कहाँ मिलता है, डीजे का प्रयोग तो लोग नाच नाच कर खुशी मनाने के लिये करते हैं।"

"तो बात तो खुशी की ही है, हम लोग भी शव-यात्रा में नाचते-नाचते ही चलेंगे।"

"पर भाई मेरे! लोग नाचेंगे कैसे? नाचने के लिये तो पहले मत्त होना जरूरी है जो कि बिना दारू पिये कोई हो ही नहीं सकता। अब यह तो शव-यात्रा है, कोई बारात थोड़े ही है जो पहले लोगों को दारू पिलाई जाये?"

"भला दारू क्यों नहीं पिलाई जा सकती? आखिर मरने वाला भी तो दारू पीता था। लोगों को दारू पिलाने से तो उनकी आत्मा को और भी शान्ति मिलेगी।"

"अरे! क्या ये दारू भी पीते थे?" किसी ने पूछा।

"ये दारू भी पीते थे से क्या मतलब? पीते थे और रोज पीते थे। पूरे बेवड़े थे। बेवड़े क्या वो तो पूरे ड्रम थे ड्रम। एक क्वार्टर से तो कुछ होता ही नहीं था उन्हें। और जब दारू उन्हें असर करती थी तो उनके ज्ञान-चक्षु खुल जाते थे। धर्म-कर्म की बातें करते थे। राम और कृष्ण की कथा बताया करते थे। रहीम और कबीर के दोहे कहा करते थे। हम लोग तो भयानक बोर हो जाते थे। अब ये बातें भला पीने के बाद करने की हैं? करना ही है तो किसी की ऐसी-तैसी करो, किसी को गाली दो, किसी को कैसे परेशान किया जा सकता है यह बताओ। सारा नशा किरकिरा कर दिया करते थे।"

"तो तुम क्यों सुनते रहते थे? उठ कर चले क्यों नहीं जाया करते थे?"

"अरे भई, जब उनके पैसे से दारू पीते थे तो उन्हें झेलना भी तो पड़ता था। और फिर जल्दी घर जाकर घरवाली की जली-कटी सुनने से तो इन्हें झेल लेना ही ज्यादा अच्छा था।"

ये बातें चल ही रहीं थी कि बहू ने मेरे लड़के को इशारे अपने पास बुलाया और एक ओर ले जाकर कहा, "ये क्या डीजे, नाचने-गाने और दारू की बात हो रही है? और तुम भी इन सब की हाँ में हाँ मिलाये जा रहे हो। इस सब में तो पन्द्रह-बीस हजार खर्च हो जायेंगे। कहाँ से आयेंगे इतने रुपये?"

"तो तुम क्यों चिन्ता में घुली जा रही हो? तुम्हें खर्च करने के लिये कौन कह रहा है?"

"पर जानूँ भी तो आखिर खर्च करेगा कौन?"

"मैं करूँगा, मैं।" लड़के ने छाती फुलाते हुए कहा।

"वाह! अपने लड़के की खटारी मोटर-सायकल की मरमम्त के लिये पाँच हजार तो हाथ से छूटते नहीं हैं और जो मर गया उसके लिये इतने रुपये निकाले जा रहे हैं। इसी को कहते हैं 'जीयत ब्रह्म को कोई ना पूछे और मुर्दा की मेहमानी'। खबरदार जो एक रुपया भी खर्च किया, नहीं तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा।"

"अरे बेवकूफ, तुम कुछ समझती तो हो नहीं और करने लगती हो बक-बक। इसी को कहते हैं 'अकल नहीं और तनखा बढ़ाओ'। अगर मेरे पास रुपये होते तो मैं भला अपने बेटे को क्यों नहीं देता? पर बाप का अन्तिम संस्कार तो करना ही पड़ेना ना!"

"बेटे के लिये नहीं थे तो बाप के लिये अब कहाँ से आ गये रुपये?"

"बुढ़उ ने खुद दिये थे मुझे पचास हजार रुपये परसों, अपने बैंक खाते में जमा करने के लिये। कुछ कारण से उस दिन मैं बैंक नहीं जा पाया और दूसरे दिन बैंक की छुट्टी थी। उनके और मेरे अलावा और किसी को पता ही नहीं है कि उन्होंने मुझे रुपये दिये थे। अब उन रुपयों में से उन्हीं के लिये अगर पन्द्रह-बीस हजार खर्च कर भी दूँ तो भी तो तुम्हारे और तुम्हारी औलाद के लिये अच्छी-खासी रकम बचेगी। साथ ही साथ समाज में मेरा खूब नाम भी होगा। अब गनीमत इसी में है कि तुम चुपचाप बैठो और मुझे भी अपने बाप का क्रिया-कर्म करने दो।"

फिर लड़के ने वापस मण्डली में आकर कहा, "भाइयों, आप लोगों ने जैसा सुझाया है सब कुछ वैसा ही होगा। डीजे भी आयेगा और दारू भी। बस आप लोग दिलखोल कर पीने और नाचने के लिये तैयार हो जाइये।"

इतने में ही एक आदमी ने आकर कहा, "हमें खबर लगी है कि जी.के. अवधिया जी की मृत्यु हो गई है, कहाँ है उनकी लाश?"

हकबका कर मेरे लड़के ने पूछा, "आपको क्या लेना-देना है उनसे?"

"अरे हमें ही तो ले जाना है उनकी लाश को। मैं सरकारी अस्पताल से आया हूँ उनकी लाश ले जाने के लिये, पीछे पीछे मुर्दागाड़ी आ ही रही होगी। उन्होंने तो अपना शरीर दान कर रखा था।"

वे लोग मेरे शरीर को ले गये और मेरी शव-यात्रा के लिये आये हुये लोगों को बिना पिये और नाचे ही मायूसी के साथ वापस लौट जाना पड़ा।

उनके जाते ही यमदूत मेरे सामने आ खड़ा हुआ और बोला, "चलो, तुम्हें ले जाने के लिये आया हूँ। जो कुछ भी तुमने अपने जीवन में पाप किया है उस की सजा तो नर्क पहुँच कर तुम्हें मिलेगी ही पर अपने ब्लोग में ऊल-जलूल पोस्ट लिखने की, किसी के ब्लोग में, यहाँ तक कि जो लोग तुम्हारे ब्लोग में टिप्पणी किया करते थे उनके ब्लोग में भी, टिप्पणी नहीं करने की सजा तो तुम्हें अभी ही यहीं पर मिलेगी।"

इतना कह कर उसने अपना मोटा-सा कोड़ा हवा में लहराया ही था कि मेरी चीख निकल गई और चीख के साथ ही मेरी नींद भी खुल गई।

8 comments:

  Randhir Singh Suman

29 March 2010 at 06:51

nice

  डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

29 March 2010 at 08:18

वैशाखनन्दर प्रतियोगिता में
अवधिया जी का सपना बढ़िया रहा!
राम-राम!

  विनोद कुमार पांडेय

29 March 2010 at 08:25

बहुत ही बढ़िया व्यंग..सपना तो बहुत खूब रहा साथ ही साथ बाकी लोगो के भी जज़्बात सामने आ गये और वो भी मजेदार किस्से...बधाई हो अवधिया जी.

  भारतीय नागरिक - Indian Citizen

29 March 2010 at 11:12

श्रीमान अवधिया जी को सलाह-कल से खूब टिप्पणियां देना प्रारम्भ कर दें, कम से आपकी टिप्पणियां पाने वाले तो आपकी तारीफ करेंगे ही आपके सपने के अगले भाग में.

  Unknown

29 March 2010 at 20:29

this is amazing .................and true

  ब्लॉ.ललित शर्मा

29 March 2010 at 20:50

बेचारों की खुशी पर तुषारापात,

उन्हे भी थोड़ा खुश होने का मौका देना था।
जींयत ले त पेरीस अउ मरे के पाछु घला पेरीस
जय हो पेरहु देंवतां

  संगीता स्वरुप ( गीत )

30 March 2010 at 12:30

यही है दुनिया की रीत ...बहुत बढ़िया व्यंग...

  रेखा श्रीवास्तव

31 March 2010 at 14:11

बहुत बढ़िया विचार हैं , आपके सब कुछ आपने जीते जी ही देख लिया. अब बाद की चिंता नहीं की क्या होगा? सब सामने है. वर्तमान चलन पर व्यंग्य की तलवार जो चलाई है न , उससे मन खुश हो गया. येव्यंग्य उस यथार्थ को बयां कर रहा है , जो इस समाज में ९० प्रतिशत चल रहा है.

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