वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता मे : श्री M Verma

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में श्री M VERMA की रचना पढिये.

लेखक का संक्षिप्त परिचय :
मेरा परिचय :
नाम : M Verma (M L Verma)
जन्म : वाराणसी
शिक्षा : एम. ए., बी. एड (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)
कार्यस्थल : दिल्ली (शिक्षा विभाग, दिल्ली सरकार) अध्यापन
बचपन से कविताओं का शौक. कुछ रचनाएँ प्रकाशित / आकाशवाणी से प्रसारित. नाटकों का भी शौक. रस्किन बांड की ‘The Blue Umbrella’ आधारित नाटक ‘नीली छतरी’ में अभिनय (जश्ने बचपन के अंतर्गत). भोजपुरी रचनाएँ भी लिखी है. दिल्ली में हिन्दी अकादमी द्वारा आयोजित ‘रामायण मेले’ में भोजपुरी रचना पुरस्कृत. हिन्द युग्म जनवरी मास 2010 की कविता प्रतियोगिता में प्रथम स्थान.
ब्लाग : जज्बात एवम यूरेका


पीना और जीना

पीना और जीना दोनों कला है. जीने की कला तो कमोबेश हर कोई जानता है पर पीने की कला हर कोई नहीं जानता है. पारंगत तो नहीं हूँ पर पीने की कला का ‘अवलोकन और अनुभव’ का काकटेल परोसना चाहता हूँ.

यूँ तो जिन्दगी की शुरूआत ही पीने से होती है. माँ की ममता और जीवन दायिनी दुग्धपान हमें पहला ‘पीना’ सिखाती है. इस अवस्था में बालक नैसर्गिक रूप से पीना सीख जाता है और फिर यह वह अवस्था होती है जो सीखने-सिखाने से परे है.

दूसरी अवस्था वह होती है जब माँ का नैसर्गिक स्नेह पान करते हुए भी वह बाप का आंशिक रूप से रक्तपान शुरू कर देता है. माँ की छत्रछाया में वह कई बार पिटने से बच जाये तो बच जाये (पढाई में पिछड़ने के कारण, देर तक घर से बाहर रहने के कारण और भी बहुत से कारणों से और कभी कभी अकारण भी) पर दोनों के (माँ और बेटे के) सामूहिक प्रयास से बेटा (बेटियाँ अपवाद हैं) बाप का खून पीता ही रहता है. ध्यान देने की बात है कि यहीं से बेटे में परजीवीपन के लक्षणों का सूत्रपात होता है.

शादी के बाद जब वही बेटियाँ जो माँ-बाप के घर निरीहता के गुण धारण करके सादगी से रहती रही होती हैं उस माँ के बेटे के रक्तपान में (अपने पति) स्वाद का प्रथम अनुभव करती हैं. प्रथमत: यह अनायास होता है फिर आदत बन जाती है.

आधुनिक शोध बताता है कि रक्तपान के शिकार अपने रक्त की पूर्ति पानी, लेमन या अन्य किसी साफ्ट पेय से नहीं कर पाते हैं इनके लिये इसके लिये सरकारी स्तर पर थोड़े से सुविधाशुल्क के साथ क्षतिपूर्ति कार्यालय खोले गये हैं जिसे ‘मदिरालय’, ‘शराबखाना’, ‘मैखाना’ (नाम पर न जायें यहाँ खाना कम पीना ज्यादा होता है), ‘बार’ आदि अनेक नामों से जाना जाता है. यहाँ कोई भी थोड़ी मात्रा में ‘मुद्राह्रास’ करके रक्त की पूर्ति कर सकता है और तो और कभी कभी वह रक्तपान करने में फिर से समर्थ भी हो सकता है. यहाँ अर्थशास्त्र का उपभोग का नियम लागू नहीं होता जहाँ मदिरापान के साथ मदिरा की आवश्यकता घटती जाये वरन बढ़ती जाती है.

पीने के इस प्रक्रिया में अगर साकी रहे तो उत्प्रेरक का काम करती है. पीने की उपलब्धि ‘बहकना’ है. बहकना और चहकना सहोदर हैं. बहका हुआ इंसान कुछ भी कर सकता है. बहकने के बाद भी पीना जारी रखें तो जिस अनुभूति के लिये लोग योग और ध्यान करते है उससे भी बड़ी और सात्विक अनुभूति नाली में गिरने (कभी कभी जानबूझ कर) के बाद मिलती है. समरसता का जीवन दर्शन यहाँ उत्पन्न होता है. यहाँ जब तक कुत्ता मुँह न चाट जाये पड़े रहें. उठे भी तो इस तरह जैसे धरती को कुचल कर अंतरिक्ष यात्रा पर निकले है.

कभी कभी बिना पीये भी इस अनुभूति को प्राप्त किया जा सकता है, इस पर फिर कभी व्याख्यान दूँगा. मुँह जब पीने से थक जाये तो आँखो से कैसे पीया जाये यह भी फिर कभी. अब तो मेरे पीने का समय हो गया.

जाते जाते एक हौसला आफजाई : Wine शब्द Win जैसा नहीं लगता क्या??



जिन्दगी में जो पीया नहीं

वो जिया क्या?

पीकर भी बहक न जाये
तो पीया क्या?

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता मे : पं.डी.के.शर्मा "वत्स"

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में प. डी.के. शर्मा "वत्स", की रचना पढिये.


लेखक परिचय :-
नाम:- पं.डी.के.शर्मा "वत्स"
जन्म:- 24/8/1974 (जगाधरी,हरियाणा)
स्थायी निवास:- लुधियाना(पंजाब)
शिक्षा:- एम.ए.--(संस्कृ्त), ज्योतिष आचार्य
कईं वर्षों पूर्व ज्योतिष आधारित विभिन्न पत्र,पत्रिकाओं हेतु लिखना प्रारंभ किया, जो कि आज तक बदस्तूर जारी है। लगभग सभी पत्रिकाओं में ज्योतिष एवं वैदिक ज्ञान-विज्ञान आधारित लेख नियमित रूप से प्रकाशित हो रहे हैं।
व्यवसाय:- ऊनी वस्त्र निर्माण उद्योग(Hosiery Products Mfg.) का निजी व्यवसाय
जीवन का एकमात्र ध्येय:- ज्योतिष एवं वैदिक ज्ञान-विज्ञान को लेकर समाज में फैली भ्रान्तियों को दूर कर,उसके सही एवं वास्तविक रूप से परिचय कराना।
शौक:- पढना और लिखना
ब्लाग:- ज्योतिष की सार्थकता

आखिर दस लाख का सवाल है भई

एक प्रतियोगिता जिसमे भाग ले रहे हैं 12 प्रतियोगी।जिसमें जीतने वाले को ईनाम के रूप में मिलेंगे पूरे 10 लाख रूपये। जी हाँ पूरे 10 लाख!। वैसे दस लाख बहुत बडी रकम होती है न!!जिसके भाग्य में विजेता बनना लिखा होगा उसकी तो जैसे लाटरी ही खुल जाएगी।इन रूपयों से आप अपने लिए कोई गाडी खरीद सकते हैं,मकान ले सकते हैं और चाहे तो बीवी बच्चों को (या किसी ओर को!)लेकर कहीं घूमने जा सकते हैं। यानि कि दस लाख रूपयों में आपकी बहुत सारी इच्छाएं पूरी हो सकती हैं। यार दोस्तों,मुहल्ले,नाते-रिश्तेदारों में नाम होगा वो अलग। सभी आपके भाग्य को सराहेंगे कि भई मुकद्दर हो तो इन जैसा। क्या किस्मत पाई है-पूरे दस लाख रूपये जीत कर आए हैं। माना कि इनमे से कुछ ईर्ष्या करने,जलने भुनने वाले लोग भी होंगे। लेकिन ये तो एक अच्छी बात है, समाज में जब तक सौ पचास लोग अपने से ईर्ष्या करने वाले न हों तो तब तक आदमी के स्टेटस का पता भी नहीं चलता।जब कुछ पास में होगा तभी तो जलने वाले होंगे न। जिसके पल्ले कुछ है ही नहीं उससे भला कौन जलेगा।

खैर जाने दीजिए लोगों का तो काम ही जलना है,उन्हे जलने दीजिए। हाँ तो हम कहाँ थे? हाँ याद आया हम बात कर रहे थे प्रतियोगिता की जिसके विजेता को मिलेंगे पूरे 10 लाख रूपये। ये दस लाख का जिक्र होते ही पता नहीं क्यूं मुझे बार बार चक्कर सा आने लगता है, शायद बहुत बडी रकम है न इसलिए। वैसे भी हमने अपनी सारी जिन्दगी में दस लाख रूपये इकट्ठे देखे कहाँ हैं सो चक्कर आना तो जायज है:)।

आप लोग भी सोच रहे होंगे कि ये क्या दस लाख-दस लाख लगा रखी है; पूरी बात तो बता ही नहीं रहे। खैर चलिए बताए देते हैं तनिक धीरज तो रखिए भाई। हाँ तो ये दस लाख रूपये आप भी जीत सकते हैं वो भी बडी आसानी से, बिना कुछ खास मेहनत किए।

जैसा कि मैने आपको बताया कि एक प्रतियोगिता है जिसमें 12 लोग भाग लेंगे, उनमे से 11 लोगों को हरा कर जो आखिरी प्रतियोगी बच जाएगा, वो ईनाम के पूरे 10 लाख रूपये(लो जी फिर से चक्कर आने लगे!) अपने घर ले जाएगा।

क्या कहा! उसके लिए हमें करना क्या होगा?।

अरे बता रहे हैं भाई! तनिक धीरज नाम की भी कोई चीज होती है कि नाहीं। 10 लाख क्या ऎसे फोकट में ही मिल जाएगा, उसके लिए कछु न कछु तो करना ही पडेगा न।

हाँ तो चलिए बताए देते हैं कि आपको क्या करना होगा। प्रतियोगिता में कईं राउण्ड होंगें। हरेक राऊण्ड मे से एक हारने वाला प्रतियोगी बाहर निकलता जाएगा। आखिर में जो बचेगा वो बन जाएगा लखपति.पूरे दस लाखपति।


सबसे पहले राउण्ड में आप लोगों के सामने एक प्लास्टिक का बडा सा भगोना टाईप कोई बर्तन रखा जाएगा। जिसमे होगा लाल लाल टमाटरों का सूप। सूप का नाम सुनकर आपके मुँह में पानी काहे आने लग पडा भाई। तनिक ठहरिए अपनी जीभ को कन्ट्रोल में रखिए और आगे भी सुन लीजिए। हाँ तो सुनिए, टमाटरों के सूप में होंगे ढेर सारे बाल। आपको क्या करना है कि अपने हाथ पीठ पीछे बाँधकर उस भगोने में से वो बालामृ्त पेय अपने मुँह में भरकर पास में ही रखे दूसरे वाले एक भगोने में डालना है। यानि कि बिना हाथों का प्रयोग किए सिर्फ मुँह के जरिए उस भगोने को पूरा का पूरा खाली करना है। बारी बारी से सभी प्रतियोगियों को वो भगोना खाली करना पडेगा लेकिन न तो वो बर्तन बदला जाएगा और न ही वो बालों वाला टमाटो सूप।

क्या कहा! ये तो सब का मुँह से निकला जूठन है, हम नहीं करेंगे।

अरे भाई ऎसा काहे सोचते हो। एक दूसरे का जूठन से तो आपस में प्रेम बढ्ता है। फिर दस लाख रूपयों का भी तो सवाल है।

लो जी आगे की सुनिये, अगले राऊण्ड में आपको एक बडी सी जिन्दा मछली दी जाएगी जिसे आपको अपने दातोँ से छीलकर छोटे छोटे टुकडों में बाँटना होगा।

अरे! आप तो फिर से बिदकने लगे। क्या कहा! ये तो जानवरों का काम है।

अजी छोडिए,आप भी इक्कीसवीं सदी में रह के न जाने कौन से जमाने की बात कर रहे हैं। जब बिना ब्याह किए ही लडका-लडकी इकट्ठे रह सकते हैं, फैशन के नाम पर कपडों का त्याग करके नंगा रहा जा सकता है तो फिर आप ये इत्ता सा काम करने में काहे बिदक रहे हैं भाई। वैसे भी, दस लाख क्या ऎसे ही फोकट में मिल जाएंगे। खैर छोडिए आप आगे सुनिए।

तीसरे राऊण्ड में आपको ज्यादा कुछ खास नहीं करना है। आपको एक हाथ में गोबर लेकर ( जित्ता जोर से खींचकर मार सकते हैं) सामने वाले के मुँह का निशाना बाँधकर मारना है। अगर आपका निशाना सही लग गया तो समझिए आप अगले राऊण्ड के लिए पास वर्ना घर जाकर पहले निशाना लगाने की प्रैक्टिस कीजिए। तब अगली बार भाग लीजिएगा।

अभी आपको तीन राऊण्ड के बारे में बता दिया है। अगर आप यहाँ तक पहुँच गए तो बाकी के राऊण्ड के बारे में भी आपको आगे बता दिया जाएगा। वैसे चिन्ता मत कीजिए आगे भी कोई ज्यादा मुश्किल नहीं है। बहुत ही आसान है जैसे कि जिन्दा कीडे मकोडे खाना वगैरह वगैरह।

क्या कहा! ये तो पाप है!

लो कल्लो बात। भई आप ऎसा क्यूँ सोचते हैं। आप ये जानिए कि ऎसा करके एक तरह से आप पुण्य का ही काम कर रहे हैं।

कैसे?

भाई मेरे कीडे मकोडों की जिन्दगी भी कोई जिन्दगी है। आप तो एक तरह से इन्हे इस कीट योनि से मुक्ति प्रदान कर रहे हैं। है न पुण्य का काम्! बस आँख मूंदकर और अपने भगवान का (या फिर शैतान का) नाम लेकर झट से मुँह में डाल लीजिएगा। वैसे भी इनमे कोन सी कोई हड्डी वगैरह होती है।

क्या कहा! आप इसमें हिस्सा नहीं लेंगे।

अजी छोडिए! नहीं भाग लेना तो न सही। हम कौन सा आपके भरोसे बैठे हैं।भाई मेरे ये आज का इण्डिया है, यहाँ बिना ढूँढे भी हजारों-लाखों मिल जाएंगे जो कि चन्द पैसों के लिए जूठन,गोबर और कीडे-मकोडे तो क्या आदमी का माँस भी खा जाएँ। यहाँ तो फिर भी दस लाख रूपयों का सवाल है।

(वैसे तो मैं टेलीवीजन जैसी बीमारी से बिल्कुल ही दूर रहने वाला प्राणी हूँ। ज्यादा से ज्यादा कभी महीने बीस दिन में समाचार जानने का मन किया तो देख लिया वर्ना नहीं। कुछ दिनों पहले की बात है मेरा बडा बेटा अपने कमरे में बैठा बडा मग्न होकर कोई कार्यक्रम देख रहा है। मन में उत्सुकता हुई कि देखूँ तो सही कि ये इतने ध्यान से कौन सा कार्यक्रम देख रहा है। मैने पूछा कि बेटा क्या देख रहे हो? तो झट से बोला कि पिता जी देखिए बहुत बढिया प्रोगाम आ रहा है, इसमें जीतने वाले को दस लाख रूपये ईनाम में मिलेंगे। क्या देखता हूँ कि वो कार्यक्रम एक कम्पीटिशन जैसा कुछ था,जिसमें भाग ले रहे प्रतियोगियों को कभी जूठन खाने का कहा जा रहा है,कभी मुँह पर गोबर मलने तो कभी जिन्दा मछली खाने को और प्रतियोगी भी अपने अपने क्रम से बडी आसानी से हँसते मुस्कुराते हुए ये सब किए जा रहे हैं। सारे के सारे प्रतियोगी अच्छे घरों के दिखाई दे रहे थे,जिनमें लडके-लडकियाँ दोनो शामिल थे। मुश्किल से दस मिनट ही वो कार्यक्रम देखा होगा कि दिमाग एकदम से भन्ना गया। सोच रहा हूँ कि आखिर इन्सान पैसों के लिए क्या कुछ कर सकता है। अक्सर इन सब के लिए हम मीडिया को दोष दे देते है कि वो समाज को पतन की ओर मोड रहा है।लेकिन मैं ये नहीं समझ पा रहा हूँ कि जो लोग इनाम के लालच में ऎसे कार्यक्रमों में भाग लेते हैं उनकी बुद्धि क्या घास चरने चली जाती है। कल को कोई चैनल ऎसा कार्यक्रम बनाए जिसमें कि प्रतियोगिओं को इन्सान का माँस खाना पडे,मल-मूत्र का सेवन करना पडे तो इसका अर्थ तो ये हुआ कि पैसों के लिए लोग वो सब भी करने को तैयार हो जाएंगे। हे प्रभु! पता नहीं इन्सान क्या से क्या बनता जा रहा है। किसी ने बिल्कुल सच कहा है कि पैसा इन्सान से कुछ भी करा सकता है।)

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता मे : श्री विनोद कुमार पांडेय

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में श्री विनोद कुमार पांडेय की रचना पढिये.

लेखक परिचय :-
नाम-विनोद कुमार पांडेय

जन्मस्थान: वाराणसी

शिक्षा: मास्टर ऑफ कंप्यूटर अप्लिकेशन
उम्र: २६ वर्ष
व्यवसाय: नौकरी
शौक: पढ़ना एवम् लिखना
ब्लाग : मुस्कुराते पल-कुछ सच कुछ सपने


बेटे की शादी में अनोखे लाल का हंगामा

बदली बदली थी सूरत,बदली बदली चाल,
बेटे की शादी करने, चले अनोखे लाल.

रंगदार कुर्ता बनवाएँ, चूड़ीदार पाजामा,
बाँधे घड़ी टाइटन की,जो दिए थे बंशी मामा,
फुल पॉलिश से चमक रही,पैरों में काला जूता,
पगड़ी सर पर शोभे,जैसे पंचायत के नेता,

दाढ़ी-मूँछ सफाचट करके, रंग डाले कुल बाल,
बेटे की शादी करने, चले अनोखे लाल.


एक मारुति मँगवाए थे,अपने लिए अकेले,
बगल गाँव से बुलवाए थे,तीन लफंगे चेले,

बात बात जयकारी, सब पट्ठो से लगवाते थे,


बीड़ी जला ले,वाला गाना, बार बार बजवाते थे,

ठुमका लगा लगा कर अपना,हाल किए बेहाल,

बेटे की शादी करने, चले अनोखे लाल.
समधी के घर दरवाजे पर,धमा-चौकड़ी खूब मचाए,
जम कर के जलपान किए,फिर भाँग गटक पान चबाए,
लगे झूमने फिर आँगन में, देख घराती थे हैरान,
ज़ोर ज़ोर से बोल रहे थे, मुँह में लेकर मगहि पान,

थूक दिए समधिन के उपर, जम के मचा बवाल,

बेटे की शादी करने, चले अनोखे लाल.
समधिन ने दो दिए जमा के, गाल हो गये लाल

बेटे की शादी करने, चले अनोखे लाल

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता मे : डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर की रचना पढिये.

लेखक परिचय
नाम- डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
पिता का नाम- श्री महेन्द्र सिंह सेंगर
माता का नाम- श्रीमती किशोरी देवी सेंगर
शिक्षा- पी-एच0डी0, एम0एम0 राजनीतिविज्ञान, हिन्दी साहित्य, अर्थशास्त्र, पत्रकारिता में डिप्लोमा
साहित्य लेखन 8 वर्ष की उम्र से।
कार्यानुभव- स्वतन्त्र पत्रकारिता (अद्यतन), चुनावसर्वे और चुनाव विश्लेषण में महारत
विशेष- आलोचक, समीक्षक, चुनाव विश्लेषक, शोध निदेशक
सम्प्रति- प्रवक्ता, हिन्दी, गाँधी महाविद्यालय, उरई (जालौन)
सम्पादक- स्पंदन
निदेशक- सूचना का अधिकार का राष्ट्रीय अभियान
संयोजक- पी-एच0डी0 होल्डर्स एसोसिएशन
ब्लाग : रायटोक्रेट कुमारेंद्र और शब्दकार


और वो हो गये खफा

वो ढूँढ़ते रहे बहाने और होते रहे खफा।
हम लगे रहे मनाने में, वो होते रहे खफा।।
हाय री किस्मत कदम-कदम पर देती रही दगा।
हम न बोलें तो खफा, बोलें तो भी खफा।।

एक दिन वो मिले बड़े जोशोखरोश से,
हमने जवाब दिया होंठों को चौड़ा करके।
वो समझ गये इसे अपनी तौहीन, और हो गये खफा।।

बोले कभी मुँह से भी कह दिया करिये,
तारीफ में हमारी दो शब्द रच दिया करिये।
हमने कहा उन्हें चाँद का टुकड़ा, और वो हो गये खफा।।

कहने लगे मैं हूँ यदि चाँद का टुकड़ा,
तो पूरे चाँद को कहाँ रखा है छिपा।
हम न मिटा सके उनका सुबहा, और वो हो गये खफा।।

वो इसी बात पर बस बिगड़ते रहे,
हम बात सँभालने में उलझते ही गये।
उन्हें तो मिल गया एक बहाना, और वो हो गये खफा।।

हमने कहा क्यों बात-बात पर बिगड़ते हैं,
हम तो आपको ही अपना समझते हैं।
बनकर आपका साया रहना चाहते हैं,
आपकी घनी जुल्फों तले सोना चाहते हैं।
बिग उतार कर हाथ में थमा दी गुस्से में,
बोले बिलकुल सोइये कब मना करते हैं।
हम ठोंक कर रह गये अपना माथा, और वो हो गये खफा।।

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डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
सम्पादक - स्पदंन
प्रवक्ता - हिन्दी विभाग,
गाँधी महाविद्यालय, उरई (जालौन)

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता मे : श्री कृष्ण कुमार यादव

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में श्री कृष्ण कुमार यादव की रचना पढिये.

लेखक परिचय :
नाम : कृष्ण कुमार यादव
भारतीय डाक सेवा
निदेशक डाक सेवाएं
अंडमान व निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर-744101
जीवन-वृत्त कृष्ण कुमार यादव
जन्म : 10 अगस्त 1977, तहबरपुर, आजमगढ़ (उ0 प्र0)
शिक्षा : एम0 ए0 (राजनीति शास्त्र), इलाहाबाद विश्वविद्यालय
लेखन विधा : कविता, कहानी, लेख, लघुकथा, व्यंग्य एवं बाल कविताएं।
कृतियाँ : अभिलाषा (काव्य संग्रह-2005), अभिव्यक्तियों के बहाने (निबन्ध संग्रह-2006), इण्डिया पोस्ट- 150 ग्लोरियस इयर्स (अंगे्रजी-2006), अनुभूतियाँ और विमर्श (निबन्ध संग्रह-2007), क्रान्ति यज्ञ: 1857-1947 की गाथा (2007)।

विशेष : शोधार्थियों हेतु व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक ‘‘बढ़ते चरण शिखर की ओर: कृष्ण कुमार यादव‘‘ डा0 दुर्गा चरण मिश्र द्वारा संपादित एवं इलाहाबाद से प्रकाशित। सुप्रसिद्ध बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबन्धु द्वारा सम्पादित ‘बाल साहित्य समीक्षा’(सितम्बर 2007) एवं इलाहाबाद से प्रकाशित ‘गुफ्तगू‘ (मार्च 2008) द्वारा व्यक्तित्व-कृतित्व पर विशेषांक प्रकाशित।

प्रकाशन : शताधिक प्रतिष्ठित हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का नियमित प्रकाशन। चार दर्जन से अधिक स्तरीय संकलनों में रचनाओं का प्रकाशन। इण्टरनेट पर विभिन्न वेब पत्रिकाओं-सृजनगाथा, अनुभूति, अभिव्यक्ति, साहित्यकुंज, साहित्यशिल्पी, काव्यांजलि, रचनाकार, हिन्दीनेस्ट, स्वर्गविभा, कथाव्यथा, युगमानस, वांग्मय पत्रिका, कलायन, ई-हिन्दी साहित्य इत्यादि में रचनाओं की प्रस्तुति।

प्रसारण आकाशवाणी लखनऊ, कानपुर व पोर्टब्लेयर से रचनाओं, वार्ता और परिचर्चाओं का प्रसारण।

सम्मान विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थानों द्वारा सोहनलाल द्विवेदी सम्मान, कविवर मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, महाकवि शेक्सपियर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान, काव्य गौरव, राष्ट्रभाषा आचार्य, साहित्य मनीषी सम्मान, साहित्यगौरव, काव्य मर्मज्ञ, अभिव्यक्ति सम्मान, साहित्य सेवा सम्मान, साहित्य श्री, साहित्य विद्यावाचस्पति, देवभूमि साहित्य रत्न, ब्रज गौरव, सरस्वती पुत्र, प्यारे मोहन स्मृति सम्मान, भारती-रत्न, विवेकानन्द सम्मान,महिमा साहित्य भूषण सम्मान, भाषा भारती रत्न एवं महात्मा ज्योतिबा फुले फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत।

अभिरूचियाँ रचनात्मक लेखन व अध्ययन, चिंतन, नेट-सर्फिंग, ब्लाॅगिंग, फिलेटली, पर्यटन, सामाजिक व साहित्यिक कार्यों में रचनात्मक भागीदारी, बौद्धिक चर्चाओ में भाग लेना।

सम्प्रति/सम्पर्कः कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवा, अंडमान व निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर-744101 मो0-09476046232 ई-मेलः kkyadav.y@rediffmail.com

ब्लॉग- शब्द सृजन की ओर एवम डाकिया डाक लाया



ई-पार्क

बचपन में पढ़ते थे
ई फाॅर एलीफैण्ट
अभी भी ई अक्षर देख
भारी-भरकम हाथी का शरीर
समने घूम जाता है
पर अब तो ई
हर सवाल का जवाब बन गया है
ई-मेल, ई-शाॅप, ई-गवर्नेंस
हर जगह ई का कमाल
एक दिन अखबार में पढ़ा
शहर में ई-पार्क की स्थापना
यानी प्रकृति भी ई के दायरे में
पहुँच ही गया एक दिन
ई-पार्क का नजारा लेने
कम्प्यूटर-स्क्रीन पर बैठे सज्जन ने
माउस क्लिक किया और
स्क्रीन पर तरह-तरह के देशी-विदेशी
पेड़-पौधे और फूल लहराने लगे
बैकग्राउण्ड में किसी फिल्म का संगीत
बज रहा था और
नीचे एक कंपनी का विज्ञापन
लहरा रहा था
अमुक कोड नंबर के फूल की खरीद हेतु
अमुक नम्बर डायल करें
वैलेण्टाइन डे के लिए
फूलों की खरीद पर
आकर्षक गिफ्टों का नजारा भी था
पता ही नहीं चला
कब एक घंटा गुजर गया
ई-पार्क का मजा ले
ज्यों ही चलने को हुआ
उन जनाब ने एक कम्प्यूटराइज्ड रसीद
हाथ में थमा दी
आखिर मंैेने पूछ ही लिया
भाई! न तो पार्क में मैने
परिवार के सदस्यों के साथ दौड़ लगायी
न ही अपने टाॅमी कुत्ते को घुमाया
और न ही मेरी पत्नी ने पूजा की खातिर
कोई फूल या पत्ती तोड़ी
फिर काहे की रसीद ?
वो हँसते हुये बोला
साहब! यही तो ई-पार्क का कमाल है
न दौड़ने का झंझट
न कुत्ता सभालने का झंझट
और न ही पार्क के चैकीदार द्वारा
फूल पत्तियाँ तोड़ते हुए पकड़े जाने पर
सफाई देने का झंझट
यहाँ तो आप अच्छे-अच्छे
मनभावन फूलों व पेड़-पौधें का नजारा लीजिये
और आँखों को ताजगी देते हुये
आराम से घर लौट जाईये।

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता मे : श्री निलेश माथुर

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में श्री निलेश माथुर की रचना पढिये.

लेखक
परिचय -
नाम- निलेश माथुर
पेशा - व्यवसाय
मूल रूप से बीकानेर, राजस्थान का रहने वाला हूँ, अब गुवाहाटी, असम में रहता हूँ , पढने का बहुत शौक है साथ ही थोडा बहुत लिख भी लेता हूँ, पत्र पत्रिकाओं में अक्सर मेरी कविताएँ प्रकाशित होती हैं!


शीर्षक- कलयुगी रावण

कलयुगी रावण ने
सोए हुए हनुमान से कहा
भाई तुमने मेरी लंका क्यों जलाई,
हनुमान ने नेत्र खोले
और बोले....
तुमने सीता माँ का हरण किया
और मेरी पूंछ में आग लगाई
इसी लिए मैंने
तुम्हारी लंका जलाई,
तब रावण बोला....
मैंने तो एक सीता का हरण किया
आज कितनी सीताओं के
हरण होते हैं
और आप लम्बी तान कर सोते हैं
अब क्यों नहीं जलाते
इनकी लंका को
क्यों नहीं बचाते अब सीता को,
हनुमान बोले...
सोने दो भाई
हरण होने दो
एक पूंछ थी वो भी तुमने जलाई
आज तो घर घर में रावण है भाई
किस किस कि लंका जलाऊंगा
मुफ्त में मारा जाऊंगा!

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता मे : श्री संजय कुमार चौरसिया

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में श्री संजय कुमार चौरसिया की रचना पढिये

लेखक परिचय
नाम :-- संजय कुमार चौरसिया

माता :-- श्रीमती जानकी देवी चौरसिया

पिता :-- श्री जगत नारायण चौरसिया

जन्म :--- १५ मार्च १९७८

शिक्षा :--- M. COM

स्थान :---- शिवपुरी , मध्य-प्रदेश

ब्लाग : संजय कुमार


मंदिर या मस्जिद, बस इक इन्सान चाहिए ...............................

पिछले कई वर्षों से हमारे देश मैं एक मुद्दा चल रहा है, मंदिर या मस्जिद , हिन्दू और मुस्लमान ! यह एक ऐसा मुद्दा है, जो तब तक ख़त्म नहीं होगा, जब तक इस धरती पर इन्सान है ! क्योंकि इस तरह के मुद्दे या मजहबी वातावरण या हिन्दू , मुस्लिमों को लेकर चलाया जा रहा ये धार्मिक युद्ध आज के इंसानों द्वारा निर्मित है ! यह सब तो आज के कुछ मतलब परस्त लोगों ने इस देश मैं ऐसा माहोल बना दिया है, वर्ना यह देश तो हमेशा से हिन्दू, मुस्लिम एकता और भाईचारे के लिए जाना जाता है ! ना की हिन्दू , मुस्लिम के लिए ! जब एक इन्सान के नजरिये से सोचा तो ये महसूस किया , की यह सब कुछ नहीं , कुछ धर्म परस्त, मतलब परस्त लोग दिखाबा कर रहे हैं ! अपने को कट्टर धर्माब्लाम्बी कहलाने का .................

जब मैंने एक साधारण हिन्दू और मुस्लिम से पूंछा की, आज देश मैं मंदिर, मस्जिद और हिन्दू , मुस्लिम को लेकर जो अफरा-तफरी का माहौल है, तो इस पर आप क्या कहना चाहेंगे, तो वह बोले, आज देश मैं इतनी महगाई, लूट खसोट, बेईमानी और भ्रस्टाचार है, की आज की मासूम जनता तो इन सब से पहले ही मर रही है ! उसे कहाँ इन सब बातों से मतलब होता है ! हमारा जीवन तो गुजर बसर और जीवन की आपाधापी मैं ही निकल जाता है ! तो क्या मंदिर क्या मस्जिद ! यह सब तो धर्म की आग पर रोटियां सेंकने बालों का काम है ! हम वह हिन्दू मुस्लिम हैं जो सभी धर्मों को एक समान द्रष्टि से देखते हैं! हम ईद पर अपने मुस्लिम भाइयों के गले लगते हैं उनके यहाँ , ईद की सिवैयां खाते हैं और उनका मान बढ़ाते हैं, उसी तरह मुस्लिम भाई हम हिन्दुओं के पर्व मैं शामिल होते हैं, चाहे वह होली हो या दिवाली हर पर्व मैं ये शामिल होकर हम उन लोगों का भी मान बढ़ाते हैं !

पर यह सब हिन्दू मुस्लिम नहीं एक इन्सान हैं ! हम लोग तो राम-रहीम दोनों को मानते हैं ! हम अजमेर शरीफ जाते हैं , तो शिर्डी के साईं भी एक साथ जाते हैं ! हमें न तो मंदिर चाहिए और न ही मस्जिद ! हमें तो सिर्फ इक इन्सान चाहिए , जिसमें इंसानियत हो , और जो इन्सान को इन्सान समझे

जय राम ----जय रहीम

हम सब भाईचारा चाहते हैं , आपस मैं मिलकर रहना चाहते हैं ! न लड़ाओ, हमें अपने ही भाइयों से ! हमें इन्सान रहने दो ! न मंदिर न मस्जिद, बस इक इन्सान चाहिए

जब मैंने दोनों की बात सुनी तो यह महसूस किया, की वाकई मैं अगर आज ये मुद्दे उठना बंद हो जाएँ तो हम और हमारा देश भाईचारे की वह मिशाल कायम कर सकते हैं, जो विश्व मैं कहीं देखने नहीं मिलेगी ! जब हम सब एक साथ उठते बैठते हैं, तो कहाँ रह जाता है फर्क , मंदिर और मस्जिद, हिन्दू मुस्लिम का

आप सभी अपने दिल पर हाँथ रखकर महसूस करें, तो आप एक अच्छा इन्सान चाहेंगे, न हिन्दू और न मुस्लिम,और कहेंगे की हम इन्सान हैं , और हमें समझने बाला बस इक इन्सान चाहिए .........................बस इक इन्सान चाहिए ................................


धन्यवाद
http://sanjaykuamr.blogspot.com

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता मे : सुश्री वाणी शर्मा

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में सुश्री वाणी शर्मा की रचना पढिये.

लेखिका परिचय ....
नाम : वाणी शर्मा
शिक्षा : एम . ए .(इतिहास ), एम . ए प्रिविअस (हिंदी )
साधारण गृहिणी ...पढने का अत्यधिक शौक और कभी कभी लिख लेने का प्रयास हिंदी ब्लोगिंग तक ले आया है ...
ब्लाग : ज्ञानवाणी


ताऊ तेरी रामप्यारी !!
उस दिन जब ताऊ अपने ब्लॉग पर रचनाएँ आमंत्रित कर रहा था ...रामप्यारी की बहुत सी सखियों की तो बांछें खुलगयी ...ज्यादा क्या कहूं ..आप सब जानते हो इस युग के सखा और सखियों के बारे में...सारी की सारी लग गयी ...अबआयेगा मजा ...जम कर रामप्यारी की पोल खोलेंगे ....पर ये ताऊ कम ना है ...पूरी फीडबैक रखे है ...झट रचनाएँआमंत्रित करने का आप्शन रद्द कर दिया ...मगर रामप्यारी की सखिओं को जो खडबडी लग गयी ...कहाँ मानती...बहुत मान मनौवल करने लगीं ...अपने ब्लॉग पर ही लगा दो हमरी पोस्ट ...वोह ताऊ तो रामप्यारी के बारी में कुछछपने देगा ... हमने भी सोचा ...के फरक पड़ेगा ...थोडी रामप्यारी की सखिओं की भड़ास निकल जायेगी ...तो फिरसुनो किस्सा ...

एक बार ताऊ के दरबरिओं ने भड़का दिया ताऊ को ...कुछ पता है तमने ...तुम तो बड़े खुश हो रहे हो ...की रामप्यारीको घर घर की निगरानी पर लगा दिया है ...कुछ पता है ...यूँ आँख मूँद कर भरोसा करना ठीक ना है ...किसीने तोरामप्यारी के पीछे भी लगा निगरानी करने को ...बात ताऊ के जच गयी ...
इब क्या था ...ताऊ ने अपने तोते रामखिलावन को लगा दिया रामप्यारी के पीछे ...
जहाँ जहाँ रामप्यारी जाती ...रामखिलावन भी पीछे लगा रहता ....रामप्यारी परेशान ...यह कुन है जो रात दिन पीछेलगा रहता है ...रामखिलावन अपनी मीठी मीठी बातों के जाल में रामप्यारी ने फांसने की कोसिस करने लागा ...
कान खड़े हो गए रामप्यारी के ...वा भी कोई कम ना है ...ट्रेनिंग जो ताऊ ने दी सै ...
तो ...एक दिन रामखिलावन बड़े लाड से बोला ...
रामखिलावन :- रे रामप्यारी ...तू मन्ने भोत अच्छी लागने लागी है
रामप्यारी :- तू भी मन्ने भोत अच्छा लागे है
रामखिलावन :- तो फिर बणा ले ना अपना ..
रामप्यारी :- ये तो कोई बात ना हुई ...काळ कोई और अच्छा लागने लगेगा ...
रामखिलावन :- ना...रामप्यारी ...तू आखिरी होगी
रामप्यारी :- ओये रामखिलावन ...भीगी लकड़ी की जलावन ...मैं तेरी थोडी ना बोल री हूँ ...
मैं तो अपनी बात करे थी ...!!
बेचारा राम खिलावन जा पड़ा ताऊ के चरणों में ...ताऊ ये तेरी रामप्यारी !!
और ताऊ अपने मुछों पर ताव देता मुस्कुराता रहा ....देखा मेरी ट्रेनिंग का असर ....बेचारे दरबारी अपना मुंह लटका कररह गए

जैसा की रामप्यारी की सखी रामदुलारी ने बताया ...

तकनीकी कारणों से रचनाओं का प्रकाशन स्थगित

प्रिय मित्रो,

सूचित किया जाता है कि इंटरनेट में आई भारी तकनीकी खराबी के कारण आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में रचनाओं का प्रकाशन संभव नहीं हो पा रहा है।

जैसे ही तकनीकी खराबी दूर होगी, रचनाओं का प्रकाशन पूर्ववत पुनः शुरू हो जाएगा।

असुविधा के लिए क्षमा याचना

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता कमेटी

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में : सुश्री आकांक्षा यादव

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में सुश्री आकांक्षा यादव की रचना पढिये.

लेखिका परिचय :
नाम- आकांक्षा यादव
जन्म - 30 जुलाई 1982, सैदपुर, गाजीपुर (उ0 प्र0)
शिक्षा- एम0 ए0 (संस्कृत)
विधा- कविता, लेख, व्यंग्य व लघु कथा।
प्रकाशन- इण्डिया टुडे, कादम्बिनी, साहित्य अमृत, दैनिक जागरण, अमर उजाला, आजकल, उत्तर प्रदेश, युगतेवर, इण्डिया न्यूज, राष्ट्रीय सहारा, स्वतंत्र भारत, राजस्थान पत्रिका, आज, गोलकोेण्डा दर्पण, युद्धरत आम आदमी, अरावली उद्घोष, गृहलक्ष्मी, गृहशोभा सहित शताधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन। दो दर्जन से अधिक स्तरीय संकलनों में कविताएं संकलित। सम्पादन- ’’क्रान्ति यज्ञ: 1857-1947 की गाथा’’ पुस्तक में सम्पादन सहयोग।
सम्मान- साहित्य गौरव, काव्य मर्मज्ञ, साहित्य श्री, साहित्य मनीषी, शब्द माधुरी, भारत गौरव, साहित्य सेवा सम्मान, महिमा साहित्य भूषण, देवभूमि साहित्य रत्न, ब्रज-शिरोमणि, उजास सम्मान, काव्य कुमुद, सरस्वती रत्न इत्यादि सम्मानों से अलंकृत। राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ’’भारती ज्योति’’ एवं भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘‘वीरांगना सावित्रीबाई फुले फेलोशिप सम्मान‘‘।
विशेष-‘‘बाल साहित्य समीक्षा‘‘ (सं0-डा0 राष्ट्रबन्धु, कानपुर नवम्बर 2009) द्वारा बाल-साहित्य पर विशेषांक प्रकाशन।
रुचियाँ- रचनात्मक अध्ययन व लेखन। नारी विमर्श, बाल विमर्श एवं सामाजिक समस्याओं सम्बन्धी विषय में विशेष रुचि।
सम्प्रति-प्रवक्ता, राजकीय बालिका इण्टर काॅलेज, नरवल, कानपुर (उ0प्र0)- 209401
सम्पर्क- द्वारा- श्री कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवा, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, पोर्टब्लेयर-744101

ई-मेलः kk_akanksha@yahoo.com
ब्लाग : शब्द-शिखर और उत्सव के रंग


मँहगाई

मँहगी सब्जी, मँहगा आटा
भूल गए सब दाल
मँहगाई ने कर दिया
सबका हाल बेहाल।
दूध सस्ता, पानी मँहगा
पेप्सी-कोला का धमाल
रोटी छोड़ ब्रेड खाओ
बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कमाल।
नेता-अफसर मौज उड़ाएं
चलें बगुले की चाल
गरीबी व भुखमरी बढ़े
ऐसा मँहगाई का जाल ।
संसद में होती खूब बहस
सेठ होते कमाकर लाल
नेता लोग खूब चिल्लायें
विपक्ष बनाए चुनावी ढाल।
जनता रोज पिस रही
धंस गए सबके गाल
मँहगाई का ऐसा कुचक्र
हो रहे सब हलाल।

Akanksha

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में : श्री समीर लाल ’समीर’

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में श्री समीरलाल "समीर" की रचना पढिये.

लेखक परिचय
नाम : समीर लाल "समीर"
उम्र : 46 वर्ष
स्थान : जबलपुर से कनाडा
शौक : पढ़ना, मित्रों के साथ बातचीत करना, लिखना और नये ज्ञान की तलाश
ब्लाग : उडनतश्तरी



अगले जनम मोहे बेटवा न कीजो...


अब जो किये हो दाता, ऐसा ना कीजो
अगले जनम मोहे बेटवा ना कीजो ऽऽऽऽ



अगले जनम मोहे बेटवा न कीजो!!

अब के कर दिये हो, चलो कोई बात नहीं. अगली बार ऐसा मत करना माई बाप. भारी नौटंकी है बेटा होना भी. यह बात तो वो ही जान सकता है जो बेटा होता है. देखो तो क्या मजे हैं बेटियों के. १८ साल की हो गई मगर अम्मा बैठा कर खोपड़ी में तेल घिस रहीं हैं, बाल काढ़ रही हैं, चुटिया बनाई जा रही है और हमारे बाल रंगरुट की तरह इत्ते छोटे कटवा दिये गये कि न कँघी फसे और न अगले चार महिने कटवाना पड़े. घर में कुछ टूटे फूटे, कोई बदमाशी हो बस हमारे मथ्थे कि इसी ने की होगी. फिर क्या, पटक पटक कर पीटे जायें. पूछ भी नहीं सकते कि हम ही काहे पिटें हर बार? सिर्फ यही दोष है न कि बेटवा हैं, बिटिया नहीं.

बेटा होने का खमिजियाना बहुत भुगता-कोई इज्जत से बात ही नहीं करता. जा, जरा बाजार से धनिया ले आ. फलाने को बता आ. स्टेशन चला जा, चाचा आ रहे हैं, ले आ. ये सामान भारी है, तू उठा ले. हद है यार!!

जब देखो तब, सारा फेवर लड़की को. अरे बेटा, कुछ दिन तो आराम कर ले बेचारी, फिर तो पराये घर चले जाना है. उनके लिए खुद से क्रीम पावडर सब ला ला कर रखें और वो दिन भर सजें. सिर्फ इसलिये कि कब लड़के वालों को पसंद आ जाये और उसके हाथ पीले किये जायें. हम जरा इत्र भी लगा लें तो दे ठसाई. पढ़ने लिखने में तो दिल लगता नहीं. बस, इत्र फुलेल लगा कर शहर भर लड़कियों के पीछे आवरागर्दी करते घूमते हो. आगे से ऐसे नजर आये तो हाथ पैर तोड़ डालूंगा-जाओ पढ़ाई करो.

बिटिया को बीए करा के पढ़ाई से फुरसत और बड़े खुश कि गुड सेकेंड डिविजन पास हो गई. हम बी एस सी मे ७०% लाकर पिट रहे हैं कि नाक कटवा दी. अब बाबू के सिवा तो क्या नौकरी मिलेगी. अभी भी मौका है थोड़ा पढ़ कर काम्पटिशन में आ जाओ, जिन्दगी भर हमारी सीख याद रखोगे. पक गया मैं तो बेटा होकर.

जब कहीं पार्टी वगैरह में जाओ कोई देखने वाला नहीं. कौन देखेगा, कोई लड़की तो हैं नहीं.

-लड़का लड़की को देखे तो आवारा कहलाये और कोई लड़की देखे तो उनकी नजरे इनायत.

-लड़की चलते चलते टकरा जाये तो मुस्कराते हुए सॉरी और हम टकरा जाये तो ’सूरदास है क्या बे!! देख कर नहीं चल सकता.’

-उनके बिखरे बाल, सावन की घटा और हमारे बिखरे बाल, भिखारी लगता है कोई.

-उनके लिए हर कोई बस में जगह खाली करने को तैयार और हमें अच्छे खासे बैठे को उठा कर दस उलाहने कि जवान होकर बैठे हो और बुजुर्गों के लिए मन में कोई इज्जत है कि नहीं-कैसे संस्कार हैं तुम्हारे.

हद है भई इस दोहरी मानसिकता की. हमें तो बिटिया ही कीजो, नहीं तो ठीक नहीं होगा, बता दे रहे हैं एक जन्म पहले ही. कोई बहाना नहीं चलेगा कि देर से बताया.

ऑफिस में अगर लड़की हो तो बॉस तमीज से बात करे, कॉफी पर ले जाये और फटाफट प्रमोशन. सब बस मुस्कराते रहने का पुरुस्कार और हम डांट खा रहे हैं कि क्या ढ़ीट की तरह मुस्कराते रहते हो, शरम नहीं आती. एक तो काम समय पर नहीं करते और जब देखो तब चाय के लिए गायब. क्या करें महाराज, रोने लगें? बताओ?

अगर पति सही आईटम मिल जाये तो ऑफिस की भी जरुरत नहीं और आराम ही आराम. जब जो जी चाहे करो बाकी तो नौकर चाकर संभाल ही रहे हैं. आखिर पतिदेव आईटम जो हैं. जब मन हो सो कर उठो, चाय पिओ, नाश्ता करो और फिर ठर्रा कर बाजार घूमों, टीवी देखो, ब्लॉगिंग करो..फिर सोओ. रात के लिए क्या बनना है नौकर को बता दो, फुरसत!! क्या कमाल है, वाह. काश, हम लड़के भी यह कर पायें.

क्या क्या गिनवाऊँ, पूरी उपन्यास भर जायेगी मगर दर्द जरा भी कम न होगा. रो भी नहीं सकता, वो भी लड़कियों को ही सुहाता है. उससे भी उनके ही काम बनते हैं. हम रो दें तो सब हँसे कि कैसा लड़का है? लड़का हो कर रोता है. बंद कर नौटंकी. भर पाये महाराज!!

बस प्रभु, मेरी प्रार्थना सुन लो-अगले जनम मोहे बेटवा न कीजो. हाँ मगर ध्यान रखना महाराज, रंग रुप देने में कोताहि न बरतना-इस बार तो लड़के थे, चला ले गये. लड़की होंगे तो तुम्हारी यह नौटंकीबाजी न चल पायेगी. जरा ध्यान रखना, वर्कमैनशिप का. उपर वाली फोटू को सुपरवाईजरी ड्राईंग मानना, विश्वकर्मा जी. १९/२० चलेगा-खर्चा पानी अलग से देख लेंगे.

ब्लॉगिंग स्पेशल: अगर लड़की होऊँ तो कुछ भी लिखूँ, डर नहीं रहेगा. अभी तो नारी शब्द लिखने में हाथ काँप जाते हैं. की-बोर्ड थरथरा जाता है. हार्ड डिस्क हैंग हो जाती है कि कहीं ऐसा वैसा न लिख जाये कि सब महिला ब्लॉगर तलवार खींच कर चली आयें. हालात ऐसे हो गये हैं कि नारियल तक लिखने में घबराहट होती है कि कहीं नारियल का ’यल’ पढ़ने से रह गया, तो लेने के देने पड़ जायेंगे. इस चक्कर में कई खराब नारियल खा गये मगर शिकायत नहीं लिखी अपने ब्लॉग पर.

बस प्रभु, अब सुन लो इत्ती अरज हमारी...
अगले जनम में बना देईयो हमका नारी..

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में : सुश्री शैफ़ाली पांडे

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में सुश्री शैफ़ाली पाण्डे की रचना पढिये.

लेखिका परिचय :-
नाम - शेफाली पांडे

शिक्षा - एम्. ए. अर्थशास्त्र एवं अंग्रेज़ी, एम् .एड.,[कुमायूं विश्विद्यालय, नैनीताल]

व्यवसाय - शिक्षण

निवास - हल्द्वानी, उत्तराखंड.

शौक - लिखना और पढ़ना


मज़े का अर्थशास्त्र

जब भी वो मुझसे टकराती है मुझे याद दिलाना नहीं भूलती कि मैं कितने मज़े में हूँ. मैं ईश्वर के इस खेल को समझ नहीं पाती हूँ , मेरे लिए जो एक अमूर्त वस्तु है , उनके लिए वही मूर्त कैसे हो जाती है, ज़रूर ये सरकारी योजनाओं के सदृश्य हैं , जिनमें पैसा तो बहुत खर्च बहुत होता है, लेकिन किसी को दिखता नहीं. इसकी तुलना ओबामा के उन शाति प्रयासों से भी की जा सकती है , जो सिर्फ नोबेल देने वालों को दिखते हैं , दुनिया को नहीं . महिलाएं इसकी तुलना उस लडकी से कर सकती हैं जिसके इश्क के चर्चे सारे शहर में आम हों लेकिन, उसके घर वालों को लडकी के घर से भागने के बाद पता चले.
वह नौकरी नहीं करती, मैं करती हूँ , इस लिहाज़ से वह मुझे कुछ भी कहने की अधिकारिणी हो जाती है , मोहल्ले से हँसती - खिलखिलाती गुज़रती है , मुझे देखते ही उसे दुखों का नंगा तार छू जाता है . ''हाई ! तुम कितनी लक्की हो !तुम्हें देखकर जलन होती है'' का हथगोला मेरी ओर फेंककर, अपना कलेजा ठंडा करके वह आगे बढ़ लेती है.

वह कहती है कि उसे चाय पीते समय किसी का टोकना पसंद नहीं है, क्योंकि उसके साथ वह अखबार पढ़ती है ,फ़िल्मी अभिनेता और अभिनेत्रियों के लेटेस्ट अफेयर और फिल्मों की खबर के साथ - साथ सोने के हर दिन के भाव उसे मुँह ज़बानी याद रहते हैं. मेरी आधी चाय मेरे आँगन में लगा हुआ रबर प्लांट पीता है, जिस दिन स्वयं चाय की अंतिम बूँद का स्वाद लेने की सोचती हूँ उसी दिन बस छूट जाती है और मुझे अस्सी रूपये खर्चने पड़ते हैं, जिससे मुझे उसके व्यंग्य बाणों से भी ज्यादा तकलीफ होती है, लेकिन जब यह रबर प्लांट बड़ा हो जाएगा, तो मैं गर्व से कह सकूंगी कि ''बेटा'! तुझे मैंने अपनी चाय पिला कर बड़ा किया है''.बच्चों से नहीं कह पाउंगी , कभी कहने की कोशिश भी करूंगी तो पता है कि क्या ज़वाब मिलेगा ''कौन सा एहसान किया ? अपने माँ बाप का कर्जा ही तो चुकाया''
.
उसका कहना है कि वह , उसके पति और बच्चे सुबह का बना हुआ खाना रात को नहीं खा सकते, और खाने मैं उन्हें नित नई वेराइटी चाहिए, इसके लिए उसने भारत के पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण ,चाइनीज़ से लेकर, थाई ,मेक्सिकन तक सारे व्यंजन बनाने सीख लिए हैं, ऐसा वह सिर्फ कहती है कभी किसी ने इस बात की पुष्टि नहीं करी .उनके पति यह नहीं खाते, उनके बच्चे वह नहीं पसंद करते. मुझे सुबह के तीन बजे उठना होता है, मैं रात की बनाई हुई सब्जी के साथ रोटी बनाकर सबके टिफन भर देती हूँ , मेरे पति और बच्चों को फरमाइश करने की इज़ाज़त नहीं है.

वह कहती है ''मैं अपने पति से हर महीने की पहली तारीख को एक नई साड़ी और एक नया सूट लेकर रहती हूँ , नौकरी नहीं करती हूँ तो क्या हुआ ?,आखिर मेरा भी कुछ हक़ बनता है'' हर करवाचौथ पर उसे व्रत करने की एवज़ में एक मुआवज़े के तौर पर सरप्राइज़ में सोने का बड़ा सा गहना ज़रूर मिलता है,

उसकी रात को पहनने वाली नाइटी पर भी प्रेस की क्रीज़ इधर से उधर नहीं होती, सुबह उठते ही उसके होंठों पर पुती हुई लिपस्टिक की लाली देर शाम तक बरकरार रहती है .वह हर हफ्ते कान के टॉप्स और मंगलसूत्र बदल देती है, एक हफ्ते से ज्यादा कोई गहना पहिनने पर उसे घबराहट होने लगती है, उसकी सास जब भी मुझे देखती है मुँह बिचकाकर कहती है ''छिः ! कैसी सुहागन हो तुम ? ना सिन्दूर, ना मंगलसूत्र'' लिहाज़ा एक दिन उसे देख कर मैंने भी अपने कान की बाली पहनी और इतराती हुई बस में बैठ गई, सुबह की उठी हुई थी, खिड़की से सर टिकाया और ठंडी हवा के झोंके लगते ही झपकी लग गई, और तब ही आँख खुली जब चोर कानों से बाली खींच ले गया, खून से लथपथ आँखों में आँसू लेकर लौटी और आकर सबकी डांट खाई सो अलग.

कई बार बस स्टॉप पर खड़ी होकर ही मुझे पता चलता है कि जल्दीबाजी में बाथरूम स्लीपर पहिन कर आ गई हूँ, वापिस जाना संभव नहीं होता क्यूंकि बस का समय निश्चित है ,इसीलिए ऐसे ही जाना पड़ता है और सबकी हँसती , मज़ाक उड़ाती नज़रों का सामना करने की शक्ति वह सर्वशक्तिमान ईश्वर मुझे प्रदान कर ही देता है.
कभी पति से किसी चीज़ की फरमाइश करने का मन करता है तो टका सा जवाब मिलता है, '' क्या आम औरतों की तरह नखरे करती हो ?खुद जाकर खरीद लाओ, अपने आप कमाती तो हो''

वह नियम से सुबह शाम दो घंटे योग करती है, उसका चेहरा पैंतालीस की उम्र में भी दमकता रहता है. मैं पैंतीस की उम्र में ही स्पोंडिलाइटिस, आर्थरआइटिस, माइग्रेन से ग्रसित हो गई हूँ , जाड़ों के दिनों में एक - एक सीढ़ी चढना भी दूभर हो जाता है.

वह अक्सर गुस्से में कहती है कि इस साल वह अपनी गृहस्थी अलग कर लेगी अन्यथा पति से तलाक ले लेगी, क्यूंकि उसकी सास कभी - कभी उससे सबके सामने ऊँची आवाज़ में बात करती है, जिससे उसे बहुत बेईज्ज़ती महसूस होती है.

मेरे ऑफिस में साहब तो एक तरफ , बड़ा बाबू तक मेरी खुलेआम बेईज्ज़ती करता है, कहता है, कि मुझे ठीक से इनकम टेक्स के कागज़ भरने भी नहीं आते . और सहकर्मियों के कागज़ स्वयं भरता है लेकिन मेरे लिए कोई मदद नहीं. पीठ फिरते ही सारा कार्यालय हंसने लगता है . कभी पानी को भी नहीं पूछने वाला, काम के समय दसियों बहाने बनाने वाला , आठवीं पास चपरासी तक कहने से ही चूकता '' बेकार है इन औरतों को नौकरी देना , ये बस घर का चूल्हा ही संभाल सकती हैं ''

उसका पति उसे अकेले बाहर नहीं जाने देता , कहते हुए वह शर्म से लाल हो जाती है, मेरे माथे पर आत्मनिर्भर का ठप्पा लगा हुआ है लिहाज़ा घर से लेकर बाहर तक सभी काम अकेले मेरे ही जिम्मे आ गए. चार - चार बैग अकेले कंधे पर लटकाए सोचना पड़ता है कि आत्मनिर्भरता क्या इसी दिन के लिए चुनी थी. मेरा अस्त व्यस्त घर देखकर उसके माथे पर शिकन आ जाती है,'' में तो ज़रा सी भी धूल बर्दाश्त नहीं कर सकती, घर फैला हुआ देखकर मुझे हार्ट अटैक होने लगता है,'' कहकर वह माथे पर आया हुआ पसीना पोछने लगती है.में डर जाती हूँ कि भगवान् ना करे कि कभी यह अचानक मेरे घर में बिना बताए घुस जाए , तो खामखाह ही मुझ पर इसकी मौत का इलज़ाम आ जाएगा.

वह हर मुलाक़ात में मेरी तनखाह पूछना नहीं भूलती, मेरे बहुत मज़े हैं, उसे याद रहता है, लेकिन तनखाह में लिपटी जिम्मेदारियां, मकान की किस्तें, पुराने उधार कई बार बताने पर भी उसकी मेमोरी से डिलीट हो जाते हैं. वह सबकी चहेती है , सामाजिक कार्यक्रमों में बढ़ -चढ़ कर भाग लेती है, शादी - ब्याह के अवसरों पर उसकी बहुत पूछ होती है, सब जगह से उसके लिए बढ़िया कपड़े बनते हैं, मुझसे कोई खुश नहीं रहता, अक्सर बगल के घर वाले भी मुझे निमंत्रण देना भूल जाते हैं. ससुराल से लेकर मायके तक सभी असंतुष्ट रहते हैं , कितने ही गिफ्ट ले जाओ फिर भी सुनना पड़ता है ''दो - दो कमाने वाले हैं और गिफ्ट सिर्फ एक, छाती पर रखकर कोई नहीं ले जाता , खाली हाथ दुनिया में आए थे, और खाली हाथ जाना है'', गीता का अमूल्य ज्ञान देने से छोटे - छोटे बच्चे भी नहीं चूकते .

कभी वह मेरे मामूली कपड़े देखकर परेशान रहती है, तो कभी चप्पल व पर्स देखकर, मेरी दुर्दशा देख कर उसने पिछले महीने शलवार - सूट का बिजनेस शुरू किया है, इस हफ्ते वह चप्पल और साड़ियों को पंजाब से मंगवाने वाली है, उसने मेरे लिए ख़ास सिल्क के सूट दक्षिण से मंगवाए हैं , उसने शपथ खाकर कहा है कि वह मुझे बिना कमीशन के बेचेगी, क्यूंकि मेरे स्टेंडर्ड को लेकर उसे बहुत टेंशन है.

उसका दृड़ विश्वास है कि नौकरीपेशा औरतों को सदा तरोताज़ा दिखना चाहिए . मैं मेंटेन रहूँ , मेरा स्वास्थ्य अच्छा रहे, इसके लिए वह ओरिफ्ल्म, एमवे की एजेंट बन गई है. जबरदस्ती मुझे महंगे केल्शियम और प्रोटीन के उत्पाद पकड़ा गई . मैंने पैसे नहीं होने की बात कही तो हिकारत भरी नज़रों से बोली ''छिः - छिः कैसी बात करती हो ? नौकरी वाली होकर भी पैसों को लेकर रोती हो, अरे, अगले महीने दे देना , पैसे कहाँ भागे जा रहे हैं ''
मेरी अनुपस्थिति में अक्सर वह किसी न किसी गृह उद्योग वाली महिला के साथ नाना प्रकार के अचार, पापड़, बड़ी के बड़े बड़े पेकेट लेकर आ जाती है, उसके अनुसार मुझ जैसों की निःस्वार्थ मदद करना उसकी होबी है.

जब वह कहती है मेरे बहुत मज़े है क्यूंकि मैं रोज़ घर से बाहर निकलती हूँ ,नाना प्रकार के आदमियों के बीच मेरा उठना बैठना है, और उन्हें बस उनके पति का ही चेहरा सुबह - शाम देखने को मिलता है, तब मैं दफ्तर के बारे में सोचने लगती हूँ, जहाँ मेरे सहकर्मी बातों - बातों में तकरीबन रोज़ ही कहते हैं ''आपको क्या कमी है, दो - दो कमाने वाले हैं '' ये सहकर्मी ऑफिस में देरी से आते हैं, जल्दी चले जाते हैं, मनचाही छुट्टियाँ लेते हैं , नहीं मिलने पर महाभारत तक कर डालते हैं मैं बीमार भी पड़ जाऊं तो नाटक समझा जाता है, सबकी नज़र मेरी छुट्टियों पर लगी रहती हैं.

अक्सर बस में खड़ी - खड़ी जाती हूँ, कोई सीट नहीं देता, कंडक्टर तक कहता है ''आजकल की औरतों के बहुत मज़े हैं''

मेरे साथ काम करने वाले एक सहकर्मी के प्रति मेरी कुछ कोमल भावनाएं थीं , वह अक्सर काम - काज में मेरी मदद किया करता था .एक दिन उसकी मोटर साइकल में बैठकर बाज़ार गई तो वह उतरते समय निःसंकोच कहता है ''पांच रूपये खुले दे दीजियेगा .''

बरसात का वह दिन आज भी मेरी रूह कंपा देता है जब उफनते नाले के पास खड़ी होकर मैंने साहब से फोन पर पूछा था, ''सर, बरसाती नाले ने रास्ता रोक रखा है ,आना मुश्किल लग रहा है, आप केजुअल लीव लगा दीजिए. साहब फुंफ्कारे '''केजुअल स्वीकृत नहीं है, नहीं मिल सकती'' कहकर उन्होंने फोन रख दिया. मैंने गुस्से में आकर चप्पलों को हाथ में पकड़ा और दनदनाते हुए वह उफनता नाला पाल कर लिया, जिसमे दस मिनट पहले ही एक आदमी की बहकर मौत हो चुकी थी,

अक्सर रास्ते में हुए सड़क हादसों में मरे हुए लोगों के जहाँ तहां बिखरे हुए शरीर के टुकड़ों को देखती हूँ तो काँप उठती हूँ , और अपने भी इसी प्रकार के अंत की कल्पना मात्र से मेरे रौंगटे खड़े हो जाते हैं .

वह कहती है कि उनके पति को औरतों का नौकरी करना पसंद नहीं है, उनके पति गर्व से मेरे सामने कई बार यह उद्घोष कर चुके हैं ,''इसे क्या ज़रुरत है नौकरी करने की? इतना पैसा तो मैं इसे हर महीने दे सकता हूँ''

मैं भी एक दिन पूछ ही बैठी '' अरे वाह बहिन, तुम्हारे पति कितने अच्छे हैं ,तुम्हें यूँ ही हर महीने इतना पैसा दे दिया करते हैं, अब तक तो आपने लाखों रूपये जोड़ लिए होंगे , वह बगलें झाँकने लगी, और अपने पति का मुँह देखने लगी , पति सकपका गया ''अरे ! इसने तो कभी पैसा माँगा ही नहीं,वर्ना क्या में देता नहीं?,
वह भी सफाई देती है, ''हाँ, मुझे कभी ज़रुरत ही नहीं पड़ी, वर्ना ये क्या देते नहीं', क्यूँ जी"?
''हाँ हाँ क्यूँ नहीं, चलो बहुत देर हो गई'', कहकर पति उठ गया और वे दोनों चलते बने.

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में : श्री ललित शर्मा

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में श्री ललित शर्मा की रचना पढिये.

लेखक का परिचय :-
नाम-ललित शर्मा
शिक्षा- स्नातकोत्तर उपाधि
उम्र- 41 वर्ष
व्यवसाय- शिक्षाविद,लेखन, अध्यन,
आरंभ--पत्रकारिता से
शौक-शुटिंग (रायफ़ल एव पिस्टल), पेंटिंग(वाटर कलर, आईल, एक्रेलिक कलर, वैक्स इत्यादि से,)
भ्रमण, देशाटन लगभग सम्पुर्ण भारत का (लेह लद्दाख को छोड़ कर)
स्थान-अभनपुर जिला रायपुर (छ.ग.) पिन-493661


कुकुरस्य पुच्छं किमर्थम् वक्रम-कुत्ते की पुंछ टेढी क्यों है?





कुत्ते और मानव का साथ बहुत पुराना है शायद जब से मानव ने जानवरों से याराना करना सीखा है तब से। लेकिन मानव का अन्य पशुओं के अलावा कुत्ते से अधिक याराना है,यह सब जानते हैं। कुत्तों के प्रकार और नस्लें भी बहुत सारी हैं। कोई कबरा कुत्ता है तो कोई भुरा, कोई काला कुत्ता है तो कोई गबरीला छैल छबीला,कोई पालतु कुत्ता है तो कोई गली का आवारा, जो सबकी हंडी में मुंह मारता हुआ घुमता हैं। कोई छोटा कुत्ता है तो कोई बड़ा। कोई गाली वाला कुत्ता है तो कोई खुजली वाला, तो कोई उल्टी दूम का कुत्ता है तो कोई डी ओ जी साहब हैं जिसे मेम साहब गोदी में बिठाकर उसका मुंह चुमती है और कोई उनके सामने खड़े हो कर कुत्ते की किस्मत पर ईर्ष्या कर रहा होता हैं। आजकल तो लोग कुत्ते भी खानदान देखकर खरीदते हैं, उसकी पुरी वंशावली देखते हैं कि इसका बाप दादा कौन था और माँ नानी कहां से आई थी। जब इसका प्रमाण पत्र मिल जाता है तो तब वे संतुष्ट होते हैं कि यह कुत्ता उनकी मेम साहब के लायक हैं। लेकिन खानदानी होने के बाद भी कुत्ता तो कुत्ता ही है।

धर्मेंद्र का एक डॉयलॉग बहुत प्रसिद्ध हुआ "कुत्ते कमीने तेरा खु्न पी जाउंगा"। जब यह फ़िल्म कुत्तों ने देखी तो उनकी युनियन की आपात कालीन बैठक हुई जिसमें निर्णय लिया गया कि जहां पर भी इस फ़िल्म का पोस्टर लगेगा वहां पर कुत्तों की युनियन के सदस्य बिना देरी किए टांग उठाकर मुतेंगे। उनका यह सत्याग्रह जब तक फ़िल्म सिनेमा घरों से नही उतर गयी तब तक चलता रहा, इस फ़िल्म के पोस्टरों को कुत्तों ने मुत्रालय बना कर धर दिया। अभी भी देखा जाता है कि कुछ कुत्ते तो किसी भी फ़िल्म का पोस्टर लगे उस पर मुत्र विसर्जन बिला नागा कर रहे हैं क्योंकि उन्हे युनियन का फ़र्मान नही आया है कि वह फ़िल्म उतर चुकी है। वे अभी तक नित नेम से पोस्टरों को गीला कर रहे है इसे कहते हैं सामाजिकता और एकता, जो इन कुत्तों में दिखाई दी।

एक कहावत है कि कुत्ते की पुंछ 12 बरस नली में रखने के बाद टेढ़ी की टेढी मिलती है। सीधी नही होती हैं। इसका कारण ढुंढ्ते शहस्त्राब्दियाँ बीत गयी कि कुत्ते की पुंछ टेढी क्यों होती है? लेकिन लोग नही जान पाए। कुछ लोगों को अपने कुत्ते का रुप पसंद नही आया तो उन्होने इसकी पुंछ सीधी करने की कोशिश की लेकिन कामयाबी नही मिलने पर कुत्ते की पुंछ ही काट कर उसे बंडु कुकुर बना डाला। अब कटी हुई पुंछ भी उपर तरफ़ रहती हैं। नीचे नही हुई ये बंडु कुत्ते की जीवटता की पहचान रही। पुंछ कट गयी लेकिन मुहावरे को सच करने के लिए पुंछ नही झुकने दी। अपनी कौम के प्रति कितने प्रतिबद्ध और अपने वचन के प्रति कितने कटिबद्ध कुत्ते हैं कि किसी भी समझदार शास्त्रज्ञ को इनसे इर्ष्या हो सकती है कि काश हम भी कुत्ते होते? तो वचन के पक्के होते। यारों के यार होते। वाह रे किस्मत कुत्ते भी ना हुए।

अब सवाल यह उठता है कि कुत्ते की पुंछ टेढी क्यों हैं? इसका जवाब कुछ इस तरह से मिला........कुत्ता थोड़े से भी पुचकारने और दाने पानी से किसी का भी मित्र बन जाता हैं। जब मित्र बन जाता है तो लोग उस पर विश्वास भी करने लगते हैं। एक बार कुत्ता कुछ ॠषि मुनियों के साथ स्वर्ग चला गया। उस समय इसकी पुंछ सीधी थी। ॠषि मुनियों का कार्य ही यज्ञ संध्या करना है। उन्होने स्वर्ग में भी देवताओं के निमन्त्रण पर यज्ञ का आयोजन किया, यज्ञ कार्य में कुछ विलंब था इस लिए यज्ञ पात्रों की रक्षा के लिए कुत्ते को तैनात कर दिया गया। अब कुत्ता घी के पात्र की चौकिदारी में तैनात हो गया। यज्ञ कर्ता सब कार्यों में व्यस्त थे। घी को देख कर कुत्ते को लालच आ रहा था। उसने पहले इधर उधर देखा, जब कोई नही दिखा तो उसने धीरे से अपना अगला पैर यज्ञ पात्र में डुबोया और चाट लिया। फ़िर दुसरा पैर डुबोया उसे भी चाट लिया। इस तरह उसने यह प्रकिया चारों पैरों से अपनाई। घी चाटने के आनंद में लगा रहा।

अब लालच बढ चुका था और हिम्मत भी आ चुकी थी कोई देख भी नही पाया और घी चाटने का मजा ले लिया। यज्ञ कुंड के पास जलनेति करने का लोटा भी रखा था। उसमें ढक्कन लगा था। कुत्ते ने सोचा कि इसमें भी सुंगंधित घी है इसका भी मजा लिया जाए। उसने लोटे की नलकी में अपनी पुंछ घुसेड़ दी। जब पुंछ वापस नि्कालने लगा तो उसमें फ़ंस चुकी थी। जैसे ही पुंछ निकालने के लिए झटका दिया तो लोटा गिरने की आवाज आई, और वह भौंकने लगा, सभी का ध्यान उस ओर आकृष्ट हुआ। कुत्ते की चोरी पकड़ी गयी। उसने अपराध किया था, ॠषियों उसे श्राप दे दिया कि तुमने घी के पात्र को झुठा करके अपवित्र किया है इसलिए तुम्हारी पुंछ टेढी रहेगी, जिससे इस दु्ष्कृत्य की तुम्हे हमेंशा याद आती रहेगी। इस प्रकार कुत्ते की पुंछ आज तक टेढी है जो सीधी नही हुई है।

इस तरह के इंसान भी हमारे बीच हैं जिन्होने कुत्तों की फ़ितरत पाई हैं। उन्हे कितना भी समझा लो समझते ही नही हैं थोड़े से लालच के लिए अपनी पुंछ दांव पर लगा देते हैं, फ़िर कुत्ते की गालियों से नवाजे जाते हैं। जब कुत्ते की फ़ितरत पा ही ली है तो कुत्तई करने से बाज नही आते, कहीं ना कहीं अपनी पुंछ घुसेड़ते रहते हैं, बाद में पुंछ कटने पर ही पता चलता है कि अब तो बड़ी हानि हो गयी। जब पुंछ कट गयी, तो हो गए बंडु कुत्ते और रह गए कुत्ते के कुत्ते........ईति!

ललित शर्मा
अभनपुर जिला रायपुर छत्तीसगढ
493 661

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में : श्री डी.के.शर्मा "वत्स"

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में प. डी.के. शर्मा "वत्स", की रचना पढिये.


लेखक परिचय :-
नाम:- पं.डी.के.शर्मा "वत्स"
जन्म:- 24/8/1974 (जगाधरी,हरियाणा)
स्थायी निवास:- लुधियाना(पंजाब)
शिक्षा:- एम.ए.--(संस्कृ्त), ज्योतिष आचार्य
कईं वर्षों पूर्व ज्योतिष आधारित विभिन्न पत्र,पत्रिकाओं हेतु लिखना प्रारंभ किया, जो कि आज तक बदस्तूर जारी है। लगभग सभी पत्रिकाओं में ज्योतिष एवं वैदिक ज्ञान-विज्ञान आधारित लेख नियमित रूप से प्रकाशित हो रहे हैं।
व्यवसाय:- ऊनी वस्त्र निर्माण उद्योग(Hosiery Products Mfg.) का निजी व्यवसाय
जीवन का एकमात्र ध्येय:- ज्योतिष एवं वैदिक ज्ञान-विज्ञान को लेकर समाज में फैली भ्रान्तियों को दूर कर,उसके सही एवं वास्तविक रूप से परिचय कराना।
शौक:- पढना और लिखना
ब्लाग:- ज्योतिष की सार्थकता

असली हिन्दुस्तान तो यहीँ इस ब्लागजगत में बस रहा है

कितना अद्भुत है ये हिन्दी ब्लागजगत! जैसे ईश्वर नें सृ्ष्टि रचना के समय भान्ती भान्ती के जीवों को उत्पन किया, सब के सब सूरत, स्वभाव और व्यवहार में एक दूसरे से बिल्कुल अलग। ठीक वैसे ही इस ब्लाग संसार में भी हजारों लोग दिन रात अलग अलग मसलों पर लिखे जा रहे हैं----लेकिन क्या मजाल कि वे किसी एक भी बात पर कभी एकमत हो सकें। सब एक दूसरे से निराले और अजीब। ये वो जगह हैं जहाँ आपको हरेक वैराईटी का जीव मिलेगा। यहाँ आपको आँख के अन्धे से अक्ल के अन्धे तक हर तरह के इन्सान के दर्शन होंगें। मैं तो कहता हूँ कि सही मायनों में यहीं असली हिन्दुस्तान बस रहा है। ऊपर वाले नें अपनी फैक्ट्री में मनुष्य जाति के जितने भी माडल तैयार किए होंगें, उन सब के नमूने आपको यहाँ देखने को मिल जाएंगें। जहाँ के पुरूष औरतों की तरह लडें, जहाँ के बूढे बुजुर्ग बात बात में बच्चों की तरह ठुसकने लगें, जहाँ एक से बढकर एक भाँड, जमूरे, नौटंकीबाज आपका मनोरंजन करने को तैयार बैठे हों, जहाँ मूर्ख विद्वानों को मात दें और जहाँ लम्पट देवताओं की तरह सिँहासनारूढ होकर भी ईर्ष्या और द्वेष में पारंगत हों, तो बताईये भला आप इनमें दिलचस्पी लेंगें या घर में बीवी बच्चों के साथ बैठकर गप्पे हांकेंगें ।

गधे और घोडे कैसे एक साथ जुत रहे हैं। शेर और बकरी कैसे एक साथ एक ही घाट पर पानी पीते हैं। यदि यह सब देखना है तो बजाए घर में बाल बच्चों के साथ सिर खपाने या टेलीवीजन पर अलाने-फलाने का स्वयंवर या सास-बहु का रोना धोना देखकर अपना ब्लड प्रैशर बढाने के यहाँ हिन्दी चिट्ठानगरी में पधारिए और हो सके तो अपने अडोसी-पडोसी, नाते रिश्तेदार, दोस्त-दुश्मन सब को हिन्दी चिट्ठाकारी का माहत्मय समझाकर उन्हे इस अनोखी दुनिया से जुडने के लिए प्रोत्साहित कीजिए क्यों कि निश्चित ही आने वाला कल हिन्दी ब्लागिंग के नाम रहने वाला है। ऎसा न हो कि कल वक्त आगे निकल जाए और आप पिछडों की श्रेणी में खडे उसे दूर जाते देखते रहें।


वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में : डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर की रचना पढिये.

लेखक परिचय
नाम- डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
पिता का नाम- श्री महेन्द्र सिंह सेंगर
माता का नाम- श्रीमती किशोरी देवी सेंगर
शिक्षा- पी-एच0डी0, एम0एम0 राजनीतिविज्ञान, हिन्दी साहित्य, अर्थशास्त्र, पत्रकारिता में डिप्लोमा
साहित्य लेखन 8 वर्ष की उम्र से।
कार्यानुभव- स्वतन्त्र पत्रकारिता (अद्यतन), चुनावसर्वे और चुनाव विश्लेषण में महारत
विशेष- आलोचक, समीक्षक, चुनाव विश्लेषक, शोध निदेशक
सम्प्रति- प्रवक्ता, हिन्दी, गाँधी महाविद्यालय, उरई (जालौन)
सम्पादक- स्पंदन
निदेशक- सूचना का अधिकार का राष्ट्रीय अभियान
संयोजक- पी-एच0डी0 होल्डर्स एसोसिएशन
ब्लाग : रायटोक्रेट कुमारेंद्र और शब्दकार


बुन्देली व्यंग्य
बातचीतन की बातें
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

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देश में जा बेरा के हालात देख कैं हमें अपयें पढ़वै कै दिनन की ‘बातें’ याद आ गईं। हमने अपयें हाईस्कूल के सुफल परयास में प्रताप नारायण मिश्र के ‘बात’ सम्बन्धी विचारन कौ पढ़ो हतो। बामें हमने गौर करो तो कि ‘बात’ को मतलब बामें सिर्फ ‘बातईं’ से हतो, हाँ कभऊँ-कभऊँ बामें बात रोग के लानेउ बातें कई गईं हतीं। लेकिन आज के जा समय में ‘बात’ के संगे ‘चीत’ और जुड़ गओ है। सो अब ‘बात’ को विस्तार होकै हो गओ ‘बातचीत’। बुन्देली में ‘चीत’ को मतलब होत है चितावै से यानै कै देखवे से, सो जा ‘बातचीत’ कौ मतलब हो गओ ‘देखत भये बतियाबो।’ अब और लेओ तो जा ‘बातचीत’ कौ और विस्तार कर दओ है और जा बन गई ‘वार्ता’, ‘वार्तालाप’, ‘विचार-विमर्श’ आदि-आदि।
अब अपयैं बीचन में चर्चा हो रई है ‘बात’ की सो स्पष्ट रूप से ‘बातईं’ करबो जादा जरूरी है। अब सवाल घुमड़न लगो कि ‘बात’ हो रई हती तो बाकै संगे जा ‘चीत’ जोडबै की का पर गई हती सबै? जऊ कै लाने यदि थोड़ो सो पीछे जाओ जाये तो आराम से पता लगहै कि हमाये देश की एक प्रधानमंत्री भईं हतीं इंदिरा गाँधी, उनई ने कहो हतो कि ‘बातें कम, काम जादा।’

अब आपई बताओ कऊँ ऐसौ हो सकता हतो कि सरकारी आदमी काम जादा करै और बातें कम करै? होनईं नई हतो ऐसौ तो अब करो का जाये? सबईं ने मिलकै जा जुगाड़ निकारी कि ‘बात’ के संगे कछु ऐसौ जोड़ दऔ जायै जासै जो अकेले ‘बात’ न रह जायै। बस, सब भइयन ने मिलकै ‘बात’ के अगाऊँ जोड़ दओ ‘चीत’ और बना दओ बायै ‘बातचीत’। अब करौ का कर पा रये हमाओ, बातेंचीतें हमसे लेऔ, खसम को रोटी तुम पै देऔ। अब बात तो होयेहै देख-देख कै। मलतब फोन पै बात कम करबै को और सामने देखत भयै बात करबै में कोनउ दिक्कित नईं।

‘बात’ को बिस्तार कर दओ और प्रधानमंत्री जी की बातउ रख लई। सबई के सब मंत्री, नेता, अफसर, कर्मचारी, सबई खूब प्रसन्न। जा शब्द को विकास भऔ और उनकी ‘बातचीतउ’ को बिस्तार मिल गओ। अब हालत जा होन लगी कि कोनउ काम होए तो पैले ‘बातचीत’ होएहै। काम कैसेउ होये, बड़ो होये, चाहैं छोटो, पैले ‘बातचीत’ तभईं काम आगे बढ़है।
जब हर काम में बहुतई जरूरी हो गऔ कि कोनउ काम बिना ‘बातचीत’ के नईं होएहै तो चाहै घर होयै, चाहै बाहर, सबई जगाँ बस बातईं बातें। घरै चाय-नाश्ता कर रयै तोऊ ‘बातचीत’, दुपहरिया में भोजन करन बैठे तोऊ ‘बातचीतें’ रात कै अपनी मेहरिया संगै मिलबैठकैं बुराई-नुक्ताचीनी की बातैं तो बऊ भई ‘बातचीत’, कुल कहबै को मतलब जो है कि सिगरै दिना बस बातईं और बातईं।

अब जब इत्ती तरहा की ‘बातैं’ होयेहैं तो बाके लानै नामउ तो अलग-अलग होन चहिएै। सो सबनै मिलके ‘बातचीत’ को नामकरण कर दऔ। दो बहुत खास जनैं या कहैं कि खूबई घोंटमघोंट वाले, जैसें ‘लगोंटिया’ जब मिलकै बातें करैं तो समझो बायै कैहें ‘गप्पबाजी’; हमाए बुन्देली में ‘गप्पें’; कोनऊ अधिकारी के संगै जब ‘बातैं’ होनै होयें तो बाये कही जैहे ‘विचार-विमर्श’; अपयँ कोनऊँ खासमखास से कोनऊ मुद्दा पै राय लैने होये तो बाये कहो जैहे ‘गुफ्तगू’; कोनउ ‘बात’ को जब कोऊ और को न सुनानें होये तो बायै कह देऔ ‘कानाफूसी’; सबईं के सामनै जब बड़े बन सँबर कै ‘बातैं’ होन लगैं तो उन ‘बातन’ को कही जात हैं ‘गोष्ठी’; और तो और मंत्री-संतरी, नेता टाइप के जनै जब ‘बातैं’ करत हैं तो बे कहलाउत हैं ‘वार्ता’ ‘मुलाकात’।

देख लओ कित्तो छोटो सो शब्द और बाकै कित्ते सारे नाम। जब इत्ते सारे नामईं हैं तो बाको महत कम थोड़ई होहैये? अच्छा महत न होतो तो सरकारैं कायै कै लानै ‘बातन’ पै ‘बातें’ करत जातीं? जितै दैखो उतै बस ‘बातनईं’ से काम बनाओ जा रओ है। भारत-पाकिस्तान को विवाद लै लेऔ, काश्मीर की चर्चा कर लेऔ, आतंकवादियन की ‘बातें’ कर लेऔ, चाहे सरकार बनबान और गिरबान की राजनीति करनै होयै, सबईं जगाँ ‘बातें’ ही ‘बातें’।
हमायै इतै का जनता और का मंत्री सबईं बातैं बनाबो तो बहुतईं अच्छी तरहा से जानत हैं। हम खेल में हार जैहें तोउ हम अपयैं में दोष नईं देखहैं, दूसरे देशन के खेलवै वालन में बुराई देखहैं, हमाये देश में आतंकवादी हमलऊ कर जात हम तभऊँ कछु नईं करत, बस बातचीतन से सब सही करवो चाहत हैं।

हम सब लोगन की का आदत पड़ गई है कि हम औरैं तब तक कौनऊ ‘बात’ पै ‘बात’ करहैं जब तक बा ‘बात’ को असर खतम न हो जैहै। चलो ‘बातईं’ कर लेऔ, काये कै लानै बिना ‘बातन’ के हमाये इतै के लोगन को पेटऊ तो नई भरतहै। ‘बातें’ तो कभऊँ कम न हौयेहैं, मुद्दा तो रोजईं तमाम सारे मिलत हैं। ‘बातचीत’ करबौ हमाओ जनमसिद्ध अधिकर हैगो, सो हम ‘बातैं’ खूबईं करहैं। आजकल हम ‘बातैं’ कर रयै कि आई0पी0एल0 में कौ हतो सबसे बड़ो चोर, हमें ‘बात’ जऊ पै करनै है कि शादी के बाद सानिया कौनकी तरफ से अपनो बल्ला चलायेहैं, हमाये लानै जोऊ बहुत बड़ो मुद्द है ‘बातन’ को कि ‘बातैं’ करबै कै लानें और ‘बातें’ लै आनैं हैं।

सो भइया होरैं, खूबईं ‘बातैं’ करौ और ‘बातनईं’ से सरकारैं चलाऔ। तुम कौनसी तोप चला रये सो बमक रयै, खाली ठलुआ से बैठेई तो रहत हो, ‘बातईं’ करौ करै, जासै कोनऊ तरह को भलौई हौयेहै, समझै कि नाहीं। सो चलौ भइया अपईं जीभ को तराशबे कै लानै हम तौ चले.............अगाऊँ आन बालै मुद्दन तक हमाई, तुमाई....‘इतिवार्ता’।
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डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
सम्पादक-स्पंदन
प्रवक्ता-हिन्दी विभाग,
गाँधी महाविद्यालय, उरई (जालौन)


तारी 22 मई 2010

ताऊ डाट इन पर तीन खुशियां एक साथ!!!

सबसे पहले तो आदरणीय गुरुद्वय श्री समीरलाल जी "समीर" और डाँ. अमर कुमार जी को सादर परणाम, जिनके आशीर्वाद से आज यह पोस्ट लिखने का अवसर आया है. और उसके बाद प्रिय बहणों, भाईयों, भतिजियों और भतीजों को घणी रामराम.

आज बहुत ही खुशी का मौका है. यानि तिहरी खुशी का मौका है.

पहली खुश खबर : आज २२ मई को ताऊ डाट इन के दो साल पूरे हुये. इन दो सालों में आप सभी का जो स्नेह और सहयोग मिला उसके लिये ताऊ टीम की तरफ़ से आप सभी का आभार व्यक्त करता हूं. ताऊ डाट इन का इन दो सालों का एक संक्षिप्त सा लेखा जोखा इस प्रकार रहा :- आगे पढने के लिये यहां चटका लगायें......

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में : श्री M VERMA

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में श्री M VERMA की रचना पढिये.

लेखक का संक्षिप्त परिचय :
मेरा परिचय :
नाम : M Verma (M L Verma)
जन्म : वाराणसी
शिक्षा : एम. ए., बी. एड (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)
कार्यस्थल : दिल्ली (शिक्षा विभाग, दिल्ली सरकार) अध्यापन
बचपन से कविताओं का शौक. कुछ रचनाएँ प्रकाशित / आकाशवाणी से प्रसारित. नाटकों का भी शौक. रस्किन बांड की ‘The Blue Umbrella’ आधारित नाटक ‘नीली छतरी’ में अभिनय (जश्ने बचपन के अंतर्गत). भोजपुरी रचनाएँ भी लिखी है. दिल्ली में हिन्दी अकादमी द्वारा आयोजित ‘रामायण मेले’ में भोजपुरी रचना पुरस्कृत. हिन्द युग्म जनवरी मास 2010 की कविता प्रतियोगिता में प्रथम स्थान.
ब्लाग : जज्बात एवम यूरेका


उपलब्धियाँ

चुप रहिए
वे कुछ बोलने जा रहे हैं
उपलब्धियों को वे
तौलने जा रहे हैं
भाइयों और बहनों
हमारा देश स्मूथली 'रन' कर रहा है
देखते नहीं कितनी आसानी से अपना काम
'गन' कर रहा है
क्या कहा ?
बलात्कार बहुत ज्यादा हुआ है
अरे! इतना भी नहीं पता
उम्मीद से बिल्कुल आधा हुआ है
घोटाले-घोटाले क्यूँ चिल्ला रहे हो
तुम तो विरोधियों से सुर मिला रहे हो
किसी देश की अच्छी अर्थव्यवस्था
और घोटालों में अभिन्न नाता है
घोटालो का सकारात्मक पहलू
क्या तुम्हे नज़र नहीं आता है
सबसे बड़ी उपलब्धि तो देखो
अब हम विश्वस्तर के घोटालें करते हैं
सामूहिक हत्याकांड पर कौन है
जो सवाल खड़ा कर रहा है
यकीनन कोई आपके कान भर रहा है
जनसँख्या वृद्धि के इस दौर में
सामूहिक हत्याकांड
व्यापक प्रभाव छोड़ते हैं
परिवार नियोजन कार्यक्रम को
सही दिशा में मोड़ते हैं
कुछ न होने से तो अच्छा है
कि कुछ होता रहे
क्या आप चाहते हैं कि
हमारा देश सोता रहे
मन में कोई भ्रम मत पालिए
लगे हाथों इस बात पर भी नज़र डालिए
विश्व में सबसे ज्यादा हम
जांच कमीशन बिठाते हैं
अरे! कभी कभी तो
जांच कमीशन की जांच के लिए भी
जांच कमीशन ले आते हैं
हमें पता था तुम चिल्लाओगे
मंहगाई का मुद्दा जरूर लाओगे
मानता हूँ मंहगाई बढ़ी है
कीमते आसमान तक चढी हैं
समस्यायें हो रहीं हैं मोटी
आम आदमी से दूर हो रही है रोटी
महानुभावों बढ़ी कीमतों के साथ
घटी कीमतों पर भी तो नज़र डालो
अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बाज़ार में हमने
रूपये की कीमत को धूल चटा दिया है
बैंक जमा राशि पर ब्याज प्रतिशत घटा दिया है
कीमत घटने का सबसे बड़ा प्रमाण ले लो
बिल्कुल मुफ्त में जब चाहो
किसी का प्राण ले लो
अरे! हमने तो रोटी से ज्यादा
आदमी को अहमियत दिया है
इंसान की कीमत घटाकर तभी तो
शून्य नियत किया है
.
जी हाँ!
शून्य नियत किया है

M Verma


तारी 21 मई 2010

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में : श्री दीपक चौरसिया 'मशाल'

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में श्री दीपक मशाल की रचना पढिये.

लेखक परिचय
नाम : दीपक चौरसिया 'मशाल'
माता- श्रीमति विजयलक्ष्मी
पिता- श्री लोकेश कुमार चौरसिया
जन्म- २४ सितम्बर १९८०, उरई(उत्तर प्रदेश)
प्रारंभिक शिक्षा- कोंच(उत्तर प्रदेश)
शिक्षा- जैवप्रौद्योगिकी में परास्नातक, पी एच डी(शोधार्थी)
संस्थान- क्वीन'स विश्वविद्यालय, बेलफास्ट, उत्तरी आयरलैण्ड, संयुक्त गणराज्य

१४ वर्ष की आयु से साहित्य रचना प्रारंभ की, प्रारंभ में सिर्फ लघु कथाओं, व्यंग्य एवं निबंध लिखने का प्रयास किया। कुछ अभिन्न मित्रों से प्रेरित और प्रोत्साहित होके धीरे-धीरे कविता, ग़ज़ल, एकांकी, कहानियां लिखनी प्रारंभ कीं. अब तक देश व क्षेत्र की कुछ ख्यातिलब्ध पत्रिकाओं और समाचारपत्रों में कहानी, कविता, ग़ज़ल, लघुकथा का प्रकाशन, रचनाकार एवं शब्दकार में कुछ ग़ज़ल एवं कविताओं को स्थान मिला. श्रोताओं की तालियाँ, प्रेम एवं आशीर्वचनरूपी सम्मान व पुरस्कार प्राप्त किया.

हाल ही में प्रथम काव्य संग्रह 'अनुभूतियाँ' का शिवना प्रकाशन सीहोर से प्रकाशन.
रुचियाँ- साहित्य के अलावा चित्रकारी, अभिनय, पाककला, समीक्षा, निर्देशन, संगीत सुनने में खास रूचि।
ब्लॉग- मसि कागद(http://swarnimpal.blogspot.com)
email: mashal.com@gmail.com
संपर्क- +४४ ७५१५४७४९०९


आप में से ज्यादातर लोगों ने ये चुटकला तो सुन ही रखा होगा कि- 'एक बार एक नदीं में कोई बच्चा डूब रहा था.. काफी भीड़ जमा हो गयी किनारे पर लेकिन गहरी और ठन्डे पानी वाली उस नदी में कूदने की किसी की हिम्मत ना पड़े.. सब एक दूसरे का मुँह तक रहे थे कि अचानक एक नौजवान नदी में कूदा और देखते ही देखते बच्चे को बचा के बाहर आ गया.

अब तो वो सब का हीरो बन गया.... लगे सब वाह-वाही करने और उसकी पीठ थपथपाने. मगर वो युवक बहुत गुस्से में एक पीठ थपथपाने वाले का हाथ झटक के बोला-- ''अरे शाबाशी गयी भाड़ में..... पहले ये बताओ कि मुझे नदी में धक्का किस कमीने ने दिया था????''

कल के एक गैर महत्वपूर्ण समाचार(गैर महत्वपूर्ण इसलिए कि ये मीडिया के लिए विशेष खबर हो सकती है आम आदमी के लिए अब ये कोई न्यूज़ नहीं रही) पर अचानक नज़र पड़ गयी... हुआ ये कि मीडिया महान का कहना है कि उनके माई-बाप राहुल गाँधी मुंबई की लोकल ट्रेन में चढ़े नहीं बल्कि चढ़ाये गए थे.. :) .. हुआ ये कि राहुल का प्लान था कि स्टेशन पर ही जनता-जनार्दन को दर्शन देकर कार से काफिले को आगे बढ़ाएंगे. लेकिन इतनी सुरक्षा के बावजूद जाने किसने उसे ऐसा धक्का दिया कि वो भी आम लोगों कि तरह हवा में तैरते हुए डब्बे के अन्दर पहुँच के अमरुद बन गया(वैसे वीडियो रेकॉर्डिंग में ऐसा कुछ दिखा तो नहीं). अब जो हो गया सो हो गया.. लेकिन इस बिना पूर्वनियोजित कारनामे से अच्छी खासी प्रशंसा तो मिल गयी... और राहुल कम से कम उस चुटकुले के युवक की तरह बेवक़ूफ़ तो था नहीं कि तारीफ के बाद भी चिल्लाये कि-- '' पहले ये बताओ कि धक्का किसने दिया???'' लेकिन सुनने में आया है कि जांच एजेंसियां ये पता लगाने में दिन-रात लगीं हैं कि धक्का(वैसे पहला धक्का कहना चाहिए क्योंकि उसके बाद तो सबने ही धक्के लगा के अन्दर ठेला होगा) आखिर दिया किसने?? मैं कुछ ऐसे सोच रहा था कि भाई हमारे यहाँ कई ऐसे क्षेत्र हैं कि वहां लोग पीछे से धक्का देके, पटक के चाक़ू चलाते हैं और जान निकाल के चले भी जाते हैं, चाक़ू, छुरा लहराते हुए...मगर F.I.R. लिखने के वक़्त थाने की स्याही ख़त्म हो जाती है इसलिए शिकायत ससुरी लिखी नहीं जाती... यहाँ देखो-- एक धक्के से वाह-वाही भी मिली और फिर जांच एजेंसियां उस मरदूद के पीछे पड़ गयीं सो अलग कि 'आखिर धक्का दिया तो दिया किसने'(और जिस आतंकवादी ने सारे देश के दिलों को धक्का दिया, सदमा दिया.. वो अभी तक हिन्दुस्तानी बिरयानी खा रहा है..) मेरी बात पर भरोसा नहीं तो नीचे लिंक दिया है खुद ही देख लीजिये-

राहुल को धक्का किसने मारा...



चलिए इसी बात पर प्रेम के स्वरुप को परिभाषित करती एक और कविता का कुठाराघात सहन करिए... जिसमे बताने की कोशिश कर रहा हूँ की प्यार में मैं कैसा रिश्ता चाहता हूँ.. मुलायजा फरमाएं---



देह नहीं बस नेह का रिश्ता

बिना किसी संदेह का रिश्ता

आती-जाती साँसों जैसा

एक सरल संवेग का रिश्ता

उसके दिल में क्या चलता है

ये खुद के दिल से जान सकूं

एक स्रोत से जो निकला हो

वो दर्दों के आवेग का रिश्ता

तन को वैसे आवश्यक है

हर फल का आहार मगर

दीर्घायु से जुड़ा है जैसे

इक ताज़े अवलेह का रिश्ता

सबकुछ होकर भी कुछ ना हो

औ कुछ ना होकर भी सबकुछ

कुंती से वो जुड़ा था जैसे

सूर्यपुत्र राधेय का रिश्ता

यूँ तो यथार्थ भी निर्देशक है

कितनी सारी रचनाओं का

कल्पनाओं से कवि का हो पर

ज्यों पावन सा स्नेह का रिश्ता

दीपक 'मशाल'

तारी 21 मई 2010

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में : श्री विनोद कुमार पांडेय

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में श्री विनोद कुमार पांडेय की रचना पढिये.

लेखक परिचय :-
नाम-विनोद कुमार पांडेय

जन्मस्थान: वाराणसी

शिक्षा: मास्टर ऑफ कंप्यूटर अप्लिकेशन
उम्र: २६ वर्ष
व्यवसाय: नौकरी
शौक: पढ़ना एवम् लिखना
ब्लाग : मुस्कुराते पल-कुछ सच कुछ सपने



फर्स्ट स्टैंडर्ड के एक बालक को,

आधुनिकता के सर्वोच्च सुचालक को,

पिता जी अँग्रेज़ी पढ़ा रहे थे,

अपने महाज्ञानी बच्चे का ज्ञान बढ़ा रहे थे.

हिन्दी से अँग्रेज़ी का ट्रांसलेशन समझा रहे थे,

बीच बीच में रिमोर्ट का बटन भी दबा रहे थे,

टेलीविजन के बड़े शौकीन थे,

शायद इसीलिए कुछ ऐसे सीन थे,

पढ़ाई के इसी दौर में,

अपने नटखट बच्चे से फिर पूछे,

"पानी ठंडा है"इसका अँग्रेज़ी अनुवाद बताओ,

सही तरीके से ट्रांसलेशन करके दिखलाओ,

बच्चे ने पहले तो अपनी ज़ोर लगायी,

पर बात कुछ बन नही पायी,

थोड़ी देर सोचने के बाद अचानक ही,

उसके दिमाग़ की बत्ती जली,

चेहरा कुछ इस कदर खिला,

जैसे कोई खजाना मिला,

मुँह खोला और ज़ोर से बोला,

पानी मतलब वाटर और ठंडा मतलब कोकाकोला,

इसलिए सही ट्रांसलेशन हुआ,"वॉटर ईज़ कोकाकोला",

यह सब टेलीविज़न का प्रभाव हैं,

पिताजी डरे,

बेटे के गाल पर दो तमाचा धरे,

फिर बीवी को बुलाए,समझाए,

कि घर में अब टी. वी. खुलने नही पाए,

यह टी. वी. ही है,जो इसे बिगाड़ रहा है,

मैं अँग्रेज़ी पढ़ा रहा हूँ,

और ई ससुरा डायलॉग झाड़ रहा है.

बच्चा है,सब ठीक हो जाएगा,

बीवी समझाई,

पर इनकी समझ में कुछ नही आई,

बातों बातों में बीवी ने,

एक और छुपी बात बोल दी,

इनकी भी एक पोल खोल दी,

बोली एक समय आप भी तो बिगड़े थे,

मैं नही जानती आप ने ही बताए थे,

सेकेंड स्टॅंडर्ड में रामायण के लेखक,

रामानंद सागर लिख कर आए थे,

क्या यह टेलीविज़न का प्रभाव नही था?,

और याद है कुछ और भी तो खास किए थे,

भारत का दिल दिल्ली की जगह वोल्टास किए थे,

आख़िर बेटा है आपका,

बाप पर ही जाएगा,

जब आप सुधर गये,

तो एक दिन वो भी सुधर जाएगा,

बोलती बंद हो गयी पातिदेव जी की,

आगे कुछ नही बोल पाए,

अपने दिन याद किए,

और मुस्कुराते हुए बाहर की ओर हो लिए.


तारी 20 मई 2010

वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में : सुश्री वाणी शर्मा

प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में सुश्री वाणी शर्मा की रचना पढिये.

लेखिका परिचय ....
नाम : वाणी शर्मा
शिक्षा : एम . ए .(इतिहास ), एम . ए प्रिविअस (हिंदी )
साधारण गृहिणी ...पढने का अत्यधिक शौक और कभी कभी लिख लेने का प्रयास हिंदी ब्लोगिंग तक ले आया है ...
ब्लाग : ज्ञानवाणी और गीत मेरे.........


अब जो आओ बापू

देश में जो हाहाकार मची है
मारकाट चीखपुकार मची है
टुकड़े टुकड़े हो जाए ना
आर्यावर्त कहीं खो जाए ना

जाति पांति की हाट सजी है
मजहब की दीवार चुनी है
स्वतंत्रता कहीं बिक जाए ना
देश मेरा खो जाए ना

जाति धर्म प्रान्त भाषा कुर्सी की यह जंग देश को अनगिनत सूबों में बदल जायेगी
फिर कोई ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार के बहाने हम पर हुकूमत चलाएगी
नींद से जागेंगे जब हम भारतवासी फिर बापू तुम याद आओगे
इस देश में बापू तब ही तुम फिर से पूजे जाओगे

आर्त्र पुकार सुनकर तुम कही घबराओगे
पुनर्जन्म पाकर जो फिर से लौट आओगे
स्वदेश की अलख फिर से जगाओगे
फिर से राष्ट्रपिता की पदवी पा जाओगे
सच कहती हूँ बापू तुम फिर से पूजे जाओगे

पर अब जो आओ बापू
मत आना इनके झांसे में
ना शामिल होना इनके तमाशे में

सलाह मेरी पर ध्यान धरना
तीन बन्दर जरुर साथ रखना
पर पहले की तरह ये मत कहना
बुरा मत देखो बुरा मत कहो बुरा मत सहो
इस बार अपना संदेश बदलना
आँख कान मुंह हमेशा बंद ही रखना
स्वदेश मंत्र को हाशिये पर रखना
सत्ता जंतर का पूरा स्वाद चखना

भावुकता के पचडे में मत पड़ना
हाथ जोड़ कर विनम्रता से कहना
राष्ट्रपिता के पद का मुझे क्या है करना
मेरी झोली तो तुम छोटे से मंत्री पद से भरना
पाँच वर्षों में ही झोली इतनी भर जायेगी
सात सही चार पीढियां तो तर ही जायेंगी




तारी 20 मई 2010

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