प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर की रचना पढिये.
लेखक परिचय
नाम- डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
पिता का नाम- श्री महेन्द्र सिंह सेंगर
माता का नाम- श्रीमती किशोरी देवी सेंगर
शिक्षा- पी-एच0डी0, एम0एम0 राजनीतिविज्ञान, हिन्दी साहित्य, अर्थशास्त्र, पत्रकारिता में डिप्लोमा
साहित्य लेखन 8 वर्ष की उम्र से।
कार्यानुभव- स्वतन्त्र पत्रकारिता (अद्यतन), चुनावसर्वे और चुनाव विश्लेषण में महारत
विशेष- आलोचक, समीक्षक, चुनाव विश्लेषक, शोध निदेशक
सम्प्रति- प्रवक्ता, हिन्दी, गाँधी महाविद्यालय, उरई (जालौन)
सम्पादक- स्पंदन
निदेशक- सूचना का अधिकार का राष्ट्रीय अभियान
संयोजक- पी-एच0डी0 होल्डर्स एसोसिएशन
ब्लाग : रायटोक्रेट कुमारेंद्र और शब्दकार
बाघ बचाने की ख़ुशी में कटा मुर्गा
अलसाई नजरों से समाचार-पत्र को पलटते हुए निहारते जा रहे थे। निहारना इस कारण से होता रहता है क्योंकि समाचारों के नाम पर ऐसा कुछ भी नहीं होता जिसे समाचार कहा जा सके। इसी तरह तथ्यों के नाम पर भी पाठकों को भी कुछ विशेष प्राप्त नहीं होता है। हत्या, बलात्कार, डकैती, प्रेमी-प्रमिका की भागमभाग, मंत्रियों-नेताओं के भ्रष्टाचार के किस्सों के मध्य अपना अस्तित्व सा तलाशती कोई एकाध खबर ऐसी होती है जिसे विशेष का दर्जा देकर पढ़ा जा सकता है। हाँ, निहारने का तो विशेष उपक्रम होता है, समाचार-पत्रों में। कोई पेज उलट दीजिए आपको किसी न किसी कोने में निहारन देवी मिल जायेंगीं। कम वस्त्र, चमकता जिस्म, मादक मुस्कान, कातिल अदाएँ...ये सब तो निश्चित हैं क्योंकि प्राथमिक विशेषताएँ हैं....शेष द्वितीयक सामग्री में वह सब होगा जिसका प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। कोल्ड ड्रिंक हो या फिर मिनरल वाटर, बिस्किट हों या आइस्क्रीम, क्रीम हो या फिर दवाई, ब्लेड हो या अंडरगारमेंट, सीमेंट हो अथवा फर्नीचर, बाइक हो या फिर कार...सभी जगह निहारन ही निहारन। बहरहाल हमारी चर्चा निहारन को लेकर नहीं थी फिर भी इतना लम्बा आख्यान हो गया....ये सब रविवार की फुर्सत भरे दिमाग की कुलबुलाहट है।
समाचार-पत्र को निहारते हुए पलटने के क्रम में एक जगह नजर ठहर गई। अपील छपी थी.....बड़ी ही मार्मिक....उतनी ही मार्मिक जितनी किसी कन्या भ्रूण को बचाने की हो सकती है, उतनी ही मार्मिक जितनी किसी बचपन को बचाने के लिए हो सकती है। हम भी इसी मार्मिकता में बह गये.....आँखों को नम कर गये। सुंदर से बच्चे के मासूमियत भरे चेहरे के साथ अपील छपी थी बाघों को बचाने की। बाघ का सुंदर सा बच्चा डरावना नहीं मासूम सा लग रहा था, गोद में उठाकर खिलाने लायक। तभी अगले पल अपनी सोच पर घबरा भी गये।
मन में उथलपुथल चालू भी हो गई.....कैसे बाघों को बचाया जाये? कहाँ जाकर बाघों को बचाया जाये? दिमाग पर जोर डाला तो याद आया कि जहाँ हम रहते हैं वहाँ आसपास तो क्या 200-250 किलोमीटर की परिध्ाि तक में न कोई जंगल है और न कोई बाघ। अरे बाघ तो तब होंगे जब हमने जंगल बचा रखे हों। इसके बाद भी बाघ तो बचाने ही हैं, लेख भी लिखना है, गोष्ठी भी करनी है, विचार-विमर्श भी करना है आखिर बाघों का सवाल है, किसी एैरे-गैरे की बात तो है नहीं। एक पल को बाघ ही महत्ता याद आई अगले ही पल लगा कि कहीं किसी ने मजाक करने के लिए तो ऐसा विज्ञापन तो नहीं कर दिया कि ‘बाघ बचाओ, लेख लिखकर और जीतो पूरे पाँच हजार रुपये का नगद इनाम।’ तारीख को याद किया तो तसल्ली हुई कि एक अप्रैल को निकले भी दस-बारह दिन हो चुके हैं।
अखबार की दो-तीन तह बनाकर सोफे के किनारे खोंस दिया और खुद भी लम्बा होकर पसर रहे। पसरने के इस अंदाज में एकदम से चाय की जलब हो आई तो श्रीमती जी को भी ‘चाय पिलवा दो’ की जोरदार आवाज मार दी। देखा जलवा, श्रीमती जी तुरन्त हाजिर हुईं, हमारे चेहरे पर आई मुस्कुराहट अगले ही पल समाप्त हो गई जब देखा कि उनके हाथ में चाय का कप नहीं वरन् बेलन है। आते ही बोली ‘पूड़ी सेंकना है और तुम्हारी चाय-चाय ने सब गड़बड़ कर रखा है।’ हम भी बाघ के बच्चे की तरह से मासूमियत अपने चेहरे पर लादकर बोले ‘कहाँ ज्यादा पी है, अभी बस दो-तीन कप ही तो.....।’
‘क्या कहा, दो-तीन कप...जरा नीचे झाँक कर देखो और कप गिन लो। अभी तक इसी कारण से उठाये भी नही हैं।’ श्रीमती जी ने बेलन का इशारा सोफे के नीचे खाली पड़े कपों की तरफ किया। हमने गिनना शुरू किया...एक...दो...तीन......ये क्या पूरे नौ कप!! ‘नहीं...नहीं...हमने इतनी चाय नहीं पी....हो सकता है कि तुम्हारे भी कप साथ में रखे हों?’ श्रीमती जी ने हमारी बहानेबाजी पर अपने होंठों पर मुस्कान फिराई तो हमें आशा बँधी कि बाघों को जीवन भले ही मिले या न मिले पर हमारी चाय हमें जरूर मिलेगी।
श्रीमती जी का आशिकाना मूड देखकर हमने टी0वी0 ऑन करने की मनुहार की तो वे रसोई के रास्ते पर पलटीं और बोलीं ‘कान में प्लग घुसेड़ लो...चल जायेगी। लाइट आ रही है क्या?’ हम भी कहाँ रविवार की फुरसतिया यात्रा के शिकार हो गये। सिर को झटका कि सही तो है, सुबह की गई लाइट तो अब दोपहर को ही आयेगी। क्या जिन्दगी है, एक ओर बाघ बचाने को सब लगे हैं पर बिजली-पानी की तरफ किसी का भी ध्यान नहीं है। तभी दिमाग में शहंशाही सवार हुई, अरे! बिजली-पानी तो गरीबों की समस्या है। किसी नेता-मंत्री को बिजली-पानी की दिक्कत कहाँ है, जो इस तरफ ध्यान दें। अरे, लाइट नहीं है तो इनवर्टर लगवाओ....जनरेटर लगवाओ..........पानी नहीं है तो सरकारी नल का भरोसा क्यों, सबमर्सिबल लगवाओ, जब चाहो तब पानी। बिजली-पानी तो कंजूसों, गरीबों के चोचले हैं, कैटल क्लास के ड्रामे हैं। देश में कहीं भी संकट नहीं है बिजली-पानी का, यदि होता तो चौराहों, पार्कों, मूर्तियों पर ऐसे ही हजारों-हजार बल्ब जगमगा रहे होते? क्रिकेट ऐसे ही रातों को खेला जा रहा होता? संकट तो बाघों पर है, सो उसे बचाना सबसे ज्यादा जरूरी है।
जैसे ही दिमाग में नवाबी फितूर चढ़ा, खुद को नवाबों की जगह पर बैठे महसूस किया, खुद को गरीबों, कंजूसों से ऊपर देखा, बस फिर सामने लगा स्विच दिखाई देने लगा, जिसमें इनवर्टर का कनेक्शन लगा हुआ था। कुछ इस अंदाज में उठे मानो जनपथ में अथवा सफदरजंग में किसी विशालकाय भवन में अपना आशियाना बनाये हुए हों और उसी शाही अंदाज में चलते हुए टी0वी0 को इनवर्टर के सहारे ऑन कर दिया। टी0वी0 की आवाज को श्रीमती जी की चीख ने धीमा कर दिया ‘क्या कर रहे हो....बैटरी खतम हो गई तो पंखे तक से बैठ जाओगे फिर मरना गरमी में।’
हम भी चीखों कों अनसुना कर टी0वी0 के चैनल धड़ाधड़ बदलने लगे। अरे! ये क्या........यहाँ भी वही मासूम बाघ का बच्चा! लगता है कि अब बाघों का बचाना राष्ट्रीय कार्यक्रम में शामिल हो गया है, कहीं कल को इसके लिए भी प्रयास करने वालों को स्वतन्त्रता सेनानी का दर्जा न दे दिया जाये? अब तो बचाना ही पड़ेगा बाघों को। तभी चाय भी प्रकट हो गई तो हमने नाश्ते की फरमाइश करते हुए कहा कि ‘जरा जल्दी करो, बाघ बचाने जाना है।’
श्रीमती जी ने चौंक कर ऐसे देखा मानो समय से पहले बिजली आ गई हो और फिर हास्यमय स्वरूप के दर्शन देकर बोलीं ‘क्या कह रहे हो, एक चूहा देखकर तो नानी मरती है और चले हैं बाघ बचाने।’ हमने उनके कंधे को बड़े प्यार से थामा और समझाया ‘अरे! सचमुच के बाघों को थोड़े ही बचाना है। बस कुछ दो-चार पेज काले करने हैं और यदि सबको पसंद आ गया तो जेब भी गरम हो जायेगी। यदि ऐसा होता है तो शाम को पार्टी पक्की।’
श्रीमती जी पार्टी के नाम पर ऐसे चहकीं जैसे आई0पी0एल0 की चीयर्स लीडर्स हों जो मैदान पर किसी के भी चौक-छक्के पर ठुमका मारने लगतीं हैं। इसी ठुमक भरे अंदाज में जल्दी से हमारे सामने नाश्ते की प्लेट भी उन्होंने टिका दी। हम भी इधर हाथ-मुँह चलाकर नाश्ता समाप्त करने में लगे थे और उधर दिमाग को चलाकर बाघों को बचाने के कारगर तरीके खोजने में लगे थे।
शाम को बापस घर लौटे तो खुशी से चहकते-फुदकते हुए हमने सबसे पहले श्रीमती जी को गोद में झूम कर उठा लिया। बाघ बचाने के हमारे प्रयासों को दूसरे नम्बर पर रखकर हमारी जेब के हवाले पूरे तीन हजार रुपये कर दिये गये थे। अब हमारा लेख और उपाय आयोजकों के पास और बाघों की जिन्दगी का जिम्मा भी कागजों के उन्हीं ढेरों के साथ-साथ आयोजकों के हाथों में चला गया।
भारीभरकम श्रीमती जी को गोद में लिए झूमते-झूमते पूछा ‘बताओ कहाँ चलना है?’ ‘कहीं नहीं, तुमने जब अपने जीतने की खबर दी तो हमने तुम्हारे दोस्तों और अपनी सहेलियों को डिनर पर बुला लिया है। हम सब मिलकर खुशी सेलिब्रेट करेंगे।’ श्रीमती जी ने अपनी अकल और सामाजिकता का परिचय दिया। अपनी श्रीमती जी की इसी सामाजिकता पर हमें गर्वमिश्रित प्रसन्नता होती है।
इसी प्रसन्नता के नशे में चूर हमने उनके बाँये गाल पर हल्की सी चिकोटी लेकर पूछा ‘आदेश करें जहाँपनाह, क्या पेश किया जाये?’ ‘कुछ विशेष नहीं, सभी की नॉनवेज खाने की इच्छा है। बस तीन अच्छे से मुर्गे कटवा लाओ...और हाँ कुछ कबाब भी ले लेना क्योंकि तुम लोग अपनी पार्टी भी....।’
हमें बिना खाये-पिये ही मुँह में मुर्गे और बीयर का स्वाद महसूस होने लगा। मुँह में बन आई लार को गटक कर अब हम बाघ बचाने के बाद मुर्गा कटवाने को शीघ्रता से चल दिये।
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डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
सम्पादक-स्पंदन
प्रवक्ता-हिन्दी विभाग,
गाँधी महाविद्यालय, उरई (जालौन)
= blogs =
http://kumarendra.blogspot.com
http://shabdkar.blogspot.com
तारीख 11 मई 2010
7 comments:
11 May 2010 at 05:28
वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता मे श्री डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर जी का स्वागत और इस बेहतरीन आलेख के लिए बधाई.
11 May 2010 at 06:04
बाघ खूब खुश होगा आज।
11 May 2010 at 06:10
धन्य हो गये होंगे बाघ अपने बचने की खुशी में मुर्गा कटने की खबर पढ़कर....
11 May 2010 at 08:18
वाकई बेहतरीन आलेख
11 May 2010 at 08:37
वैशाखनंदन प्रतियोगिता में आपको दूसरी बार पढ़ रहा हूँ....बढ़िया रचना..बधाई
11 May 2010 at 08:46
बहुत अच्छा लगा कुमारेंद्र जी को पढ कर
आप तो हमेशा ही अच्छा लिखते हैं
आभार
11 May 2010 at 10:50
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