प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में श्री ललित शर्मा की रचना पढिये.
लेखक का परिचय :-
नाम-ललित शर्मा
शिक्षा- स्नातकोत्तर उपाधि
उम्र- 41 वर्ष
व्यवसाय- शिक्षाविद,लेखन, अध्यन,
आरंभ--पत्रकारिता से
शौक-शुटिंग (रायफ़ल एव पिस्टल), पेंटिंग(वाटर कलर, आईल, एक्रेलिक कलर, वैक्स इत्यादि से,)
भ्रमण, देशाटन लगभग सम्पुर्ण भारत का (लेह लद्दाख को छोड़ कर)
स्थान-अभनपुर जिला रायपुर (छ.ग.) पिन-493661
अथ कर्ण पुराण कथा--प्रवाचक: - ललित शर्मण:
मैं रेल्वे स्टेशन पहुंचा जैसे गाड़ी पार्किंग में लगाने लगा तो एक जोर दार आवाज आई "बजाऊं क्या तेरे कान के नीचे?" मैंने पलट के देखा तो दो लोग एक दुसरे से जूझ रहे थे......... एक-दुसरे का कालर पकड़ कर गरिया रहे थे....... हम तो आगे बढ़ लिए ट्रेन का समय होने वाला था. हमारे मेहमान आने वाले थे. फालतू में इनके पंगे में कौन पड़े? लेकिन चलते-चलते कह ही दिया. अरे कान का क्या दोष है? बजाना है तो एक दुसरे को बजाओ."
अब दो लोग लड़ रहे हैं और पिटाई कान की हो रही है. कान का क्या दोष है? गलती कोई करता है और कान पकड़ा जाता है. माल खाए गंगा राम और मार खाए मनबोध........ कान पकड़नाभी एक मुहावरा है........ हम जब कोई गलती करते थे या बदमाशी करते थे या स्कुल में किसी को पीट देते थे जब उलाहना घर पर आता था तो दादी के सामने पहले ही कान पकड कर खड़ेहो जाते थे कि अब से कोई गलती नहीं करेंगे.......... अब कोई उलाहना लेकर घर नहीं आएगा......... इस तरह कान एक हथियार के रूप में काम आ जाता था और हम बच जाते थे.
कभी कोई किसी के कान भर देता है तो फिर मुसीबत ही खड़ी हो जाती है. अगर समझदार न हुआ तो फ़िर....... जुतम पैजार शु्रु, किसी की बात पर विश्वास करने से पहले सत्यता की जांच की जाए. तो झगड़े से बचा जा सकता है, कान का कच्चा आदमी किसी की भी बात पर विश्वास कर लेता है........ भले ही वो गलत हो.......... और बाद में उसका गलत परिणाम आये और पछताना पड़े............. लेकिन एक बार तो मन की कर ही लेता है.......... इसलिएकान के कच्चेआदमी विश्वसनीय नहीं होते और लोग इनसे बचना चाहते है.......
कुछ लोग कान फूंकने में माहिर होते हैं......... धीरे से कान में फूंक मार कर चल देते हैं फिर तमाशा देखते है........ मौज लेते है........ अब तक की सबसे बड़ी मौज कान फूंक कर मंथरा ने ली थी.......... धीरे से माता कैकई का कान फूंक दिया और फिर राम का बनवास हो गयादेखिये कान फूंकने तक मंथरा का उल्लेख है उसके बाद रामायण में सभी दृश्यों से वह गायब हो गई है कहीं कोने छिपकर मौज ले रही है............. ऐसे कान फूंकाजाता है...... यह एक परंपरा ही बन गई है....... किसी को गिरना हो या चढ़ाना हो............ दो मित्रों या परिवारों के बीच लड़ाई झगड़ा करवाना हो ......... बस कान फूंको और दूर खड़े होकर तमाशा देखो. कान भरने और फूंकने में वही अंतर है जिंतना पकवान और फास्ट फ़ूड में है.......... कान भरने के लिए भरपूर सामग्री चाहिए........... क्योंकि कान इतना गहरा है कि इसे जीवन भर भी व्यक्ति भरे लेकिन पूरा भर ही नहीं पाता है.... कान भरने का असर देर से होता है तथा देर तक रहता है......... लेकिन कान फूंकने के लिए ज्यादा समय और मगज खपाना नहीं पड़ता चलते चलते फूंक मारिये और आपका काम हो गया......
अब कन्फुकिया गुरूजी हैं............... जो कान में ऐसे फूंक मारते है की जीवन भर पुरे परिवार को कई पीढ़ी का गुलाम बना लेते हैं .............. कुल मिला कर कुलगुरु हो गये........ चेले का कान गुरु की एक ही फूंक से भर से भर जाता है......... बस उसके बाद चेले को किसी दुसरे की बात नहीं सुनाई देती क्योंकि कान में जगह ही नहीं है. क्योंकि गुरु जी के कान खींचने का डर लगा रहता है, अब वह कान उसका नहीं रहा गुरूजी का हो गया....... अब कान में सिर्फ गुरूजी का ही आदेश सुनाई देगा............. गुरूजी अगर कुंवे में कूदने कहेंगे तो कूद जायेगा........ इसे कहते हैं कान फूंकी गुलामी..........
चेला गुरूजी की सभी बातें कान देकर सुनता है.........कान फूंकाया चेला कुछ दिनों में पदोन्नत होकर काना बन जाता है........ काना बनाकर योगी भाव को प्राप्त का कर लेता फिर सारे संसार को एक ही आँख से देखता है.............. बस यहीं से उसे समदृष्टि प्राप्त हो जाती है........ गीता में भी भगवान कृष्ण ने कहा है स्मुत्वं योग उच्चते...... इस तरह चेला समदृष्टि प्राप्त कर परमगति की ओर बढ़ता है ........ कान लगाने से यह लाभ होता है कि एक दिन गुरु के भी कान काटने लग जाता है...... उसके चेलों की संख्या बढ़ जाती है..........गुरु बैंगन और चेला पनीर हो गया ....... गुरु छाछ और चेला खीर हो गया.
चेला गुरु बनने के लिए सफ़ाई से ऐसे हथकंडे अपनाता है कि गुरु को कानों कान खबर नही होती, गुरु जी के अन्य चे्ले भले ही उनका कान खाते हों, लेकिन अति विश्वास के कारण गुरुजी के कान खड़े नही होते, गुरुजीकान मे तेल डाल कर सोये रह्ते हैं, उनको ध्यान देना चाहिए कि कौंवा कान ले गया है, लेकिन वो तो गुरु ठहरे जब मन में आया तभी चेले के कान खींच लेंगे। लेकिन जब देखा कि चेला तो गद्दार निकला, गुरु जी का ही बिस्तर गोल कर गया तो गुरु जी ने धरती में नाक रगड़ी और बार-बार कानों को हाथ लगाया कि अब किसी पर अंधविश्वास नही करेंगे।
कान शरीर का महत्त्व पूर्ण अंग है बड़े-बड़े योगी और महापुरुष इससे जूझते रहे हैं...... आप शरीर की सभी इन्द्रियों पर काबू पा सकते हैं उन्हें साध सकते हैं लेकिन कान को साधनामुस्किल ही नहीं असम्भव है.......... क्योंकि कहीं पर भी कानाफूसी होती है बस आपके कान वही पर लग जाते हैं.......क्योकि कानाफूसी सुनने के लिए दीवारों के भी कान होते हैं....... अब भले ही आपके कान में कोई बात ना पड़े लेकिन आप शक करने लग जाते हैं कि मेरे बारे में ही कुछ कह रहा था........ क्योंकि ये कान स्वयम की बुराई सुनना पसंद नहीं करते........... अच्छाई सुनना ही पसंद करते है......... भले ही कोई सामने झूठी प्रशंसा कर रहा हो.... और पीठ पीछे कान के नीच बजाता हो....... इसलिए श्रवण इन्द्री को साधना बड़ा ही कठिन है..........
आज कल कान के रास्ते एक भयंकर बीमारी शरीर में प्रवेश कर रही है.........जिससे लाखों लोग असमय ही मारे जा रहे हैं... किसी ने कुछ कह दिया तथा कान में सुनाई दिया तो रक्त चाप बढ़ जाता है दिल का रोग हो जाता है और हृदयघात से राम नाम सत्य हो जाता है.... हमारे पूर्वज इस बीमारी से ग्रसित नहीं होते थे क्योंकि वे बात एक कान से सुनकर दुसरे कान से निकलने की कला जानते थे. उसे अपने दिमाग में जमा नहीं करते थे......... कचरा जमा नहीं होता था और सुखी रहते थे.......
वर्तमान युग में लोग दोनो कानो में हेड फोन लगा लेते हैं और बस जो कुछ अन्दर आता है और वह जमा होते रहता है...... स्वस्थ रहने के लिए एक कान से प्रवेश और दुसरे कान से निकास की व्यवस्था जरुरी है............ इसका महत्व भी समझना जरुरी है.... क्योकि अगर आप कहीं पर गलत हो गये तो कान पर जूता रखने के लिए लोग तैयार बैठे हैं............ ऐसा ना हो आपको खड़े खड़े कान खुजाना पड़ जाये......... इसलिए कान के महत्त्व को समझे और बिना मतलब किसी के कान मरोड़ना छोड़ दें तो आपके स्वास्थ्य के लिए लाभ दायक ही होगा............ महत्वपुर्ण बातों को कान देकर सुनना चाहिए याने एकाग्र चित्त होकर........हमारे 36गढ में एक गाना है उसकी दो पंक्तियां प्रस्तुत करता हुँ।
बटकी मा बासी अउ चुटकी मा नुन
मैं गावत हंव ददरिया तैं कान देके सुन
॥इति श्री कान कथा पुराणे समाप्तं ॥
ललित शर्मा
अभनपुर जिला रायपुर छ ग
21 comments:
5 May 2010 at 05:27
स्वस्थ रहने के लिए एक कान से प्रवेश और दुसरे कान से निकास की व्यवस्था जरुरी है'
गुरूवचन
इसी सूक्ति को अपना रहे हैं
सुन्दर
5 May 2010 at 05:54
बाकई ललित शर्मा जी लिखते अच्छा हैं और ब्लॉग जगत को ऐसे लोगों की सख्त आवश्यकता है / आपने ललित जी की रचना प्रस्तुत कर अच्छा और सराहनीय काम किया है /
5 May 2010 at 06:27
छा गये महाराज,
अब ऐसा ज्ञान एक कान से सुनकर दूसरे से निकलने दें, ऐसा हो नहीं सकता।
चाहें तो कान खींच लीजिये हमारे।
वैसे कान के कच्चे नहीं हैं हम।
मज़ा आ गया।
आभार
5 May 2010 at 07:44
वाह!...इस कर्ण पुराण को पढकर तो वाकई मज़ा आ गया
5 May 2010 at 07:46
... बधाईंया !!!
5 May 2010 at 07:47
.... शुभकामनाएं !!!
5 May 2010 at 07:47
... हो जायेगी बल्ले बल्ले ... !!
5 May 2010 at 07:47
... ढोल बाजे ढोल ... डमडम बाजे ढोल ... !!!
5 May 2010 at 07:56
ललित भाई की सुन्दर पोस्ट। इस बिशेष सम्मान के लिए बधाई।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
5 May 2010 at 08:01
वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता मे माननीय श्री ललित शर्मा जी का पुनः स्वागत है एवं इस बेहतरीन रचना के लिए उन्हें बहुत बधाई...
5 May 2010 at 08:07
बहुत बढ़िया ,,कर्ण महिमा तो खूब रही...बधाई ललित जी
5 May 2010 at 11:15
shandar
bahut khub
5 May 2010 at 11:21
कान खोल कर सुनी है जी आपकी रचना
बहुत बढिया लगी, धन्यवाद
प्रणाम स्वीकार करें
5 May 2010 at 12:34
मुहावरों पर आधारित बढ़िया व्यंग कथा
5 May 2010 at 13:44
waah kya karn puran hai maja aa gaya padhkar.
5 May 2010 at 14:20
भईया तुम्हारी इस कर्ण कथा नें तो हमारे कान पका डाले :-)
बहुते ज्ञानवर्धक च मौजायमान रचना...भाई सुबह सुबह आनन्द आ गया..
बधाई!!!
5 May 2010 at 17:45
गजब।
पूरा कान पुराण तैयार हो गया।
5 May 2010 at 18:10
प्रतियोगिता हेतु हार्दिक शुभकामनाएं।
5 May 2010 at 20:28
अजी छा गये आज तो जनाब बहुत सुंदर
5 May 2010 at 23:06
vaah...vahh bas , yahi nikalrahaa hai.ungaliyon se.....
6 May 2010 at 22:23
कान जिंदाबाद ...
Post a Comment