प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में श्री अविनाश वाचस्पति की रचना पढिये.
लेखक परिचय :-
अविनाश वाचस्पति,
साहित्यकार सदन, पहली मंजिल,
195 सन्त नगर,
नई दिल्ली 110065
मोबाइल 09868166586/09711537664
व्यंग्य
दाल ने मुर्गी को पछाड़ा
अविनाश वाचस्पति
महंगाई की दाल खूब गल रही है। दाल अरहर की है पर इसे बांटने में दिल्ली सरकार की जो खिचड़ी बन रही है, वो बीरबल की खिचड़ी की याद दिला रही है। दाल ऐसा शेयर बन चुकी है जिसकी कीमत गिरती नहीं है और काबू में नहीं आ रही है। जबकि दाल को कोई कंपनी नहीं बनाती है और न बना ही सकती है। इसका उत्पादन तो खेतों में ही हो सकता है, पहले भी होता रहा है, अब भी हो रहा है। जो बात पहले नहीं हो रही थी, वो ये थी कि इनकी कीमतें बढ़ नहीं रही थीं और अब बढ़ने से अधिक तेजी से चढ़ रही हैं और वो भी आम आदमी की जेब दर जेब। आंख दर आंख और कंधा दर कंधा, बिल्कुल अंधा करती हुई।
अगर तकनीक का उपयोग अथवा दुरुपयोग कहें, करके दाल की फोटोप्रतियां करवा कर प्रयोग में लाई जा सकतीं तो वैसी फोटोकापियर मशीनों का भविष्य दाल से अधिक अरहरा (सुनहरा की तर्ज पर) पर हो गया होता। दालों पर बने मुहावरे ये मुंह और मसूर की दाल की जगह अब यह मुंह और अरहर की दाल लेने ही वाले हैं। जरा भाषाशास्त्रियों की नींद तो टूटने दें। शास्त्री में स्त्री जुड़ा देखकर इस भ्रम में न रहें कि शास्त्री महिला ही हो सकती हैं, मतलब हो भी सकती हैं और नहीं भी पर जरूरी नहीं है। पर दाल की दर बढ़ना तय है। दाल की कीमतों का बढ़ना आज वोट बैंक का डूबना हो गया है। दाल की इतनी तेज छलांग ऐतिहासिक है कि इसने न जाने कितनी मुर्गियों की कीमतों को धराशायी कर दिया है। अब घर की मुर्गी दाल बराबर मुहावरा अप्रासंगिक हो चुका है।
सब्जियों की कीमतें उछलती कूदती रहती हैं। पर उनके फुदकने को उनका बचपना न मान लीजिएगा। ये तो राहत बांटने के साथ ही आहत करती चलती हैं। उनका उछलने कूदने का जज्बा उन्हें सदा सुर्खियों में बनाए रखता है। पर यह दाल की तानाशाही ही कही जाएगी कि उनके जो रेट एक बार बढ़ते हैं तो फिर बढ़ते ही हैं। उनमें गिरावट का कोई अंश नजर नहीं आता जबकि दंश तो उसके बढ़ते रेट दे रहे हैं। दंश देश के आम, खास नागरिक सभी को लग रहे हैं। सब बिलबिला रहे हैं पर कर इतना भी नहीं पा रहे हैं कि इससे मुक्ति का कोई शाश्वत उपाय हासिल कर सकें। सिर्फ सब्जियां खाएं और खिलाएं पर उन पर मानसून का न आना या देर से आना मेहरबान है।
पहले दे दाल में पानी मुहावरे काफी प्रचलन में रहे हैं। जूतियों में दाल बंटना ने दाल को दलित श्रेणी में शुमार कर दिया था परन्तु अब दालों का दाना दाना दमदार हो गया है। किसी की क्या मजाल कि जो इनकी शान में, इनके टूटे दाने के बारे में भी हल्की ब्यानबाजी कर सके। जो भी ऐसा करने की सोचेगा उसकी पूरी की पूरी बाजी उलट जाएगी। कह सकते हैं कि दालों के रेट बढ़ने से बहुत ही आवश्यक वस्तुओं के रेट भी बढ़े जा रहे हैं। दालों के रेट अपने आप बढ़ रहे हैं यह स्वंयभूत ऐसी प्रक्रिया है जो इससे जुड़े लोगों का उनके जीवन में ही भूत बना रही है। जबकि ये सब जानते हैं कि भूत न दाल खाते हैं न भात पर जो अपने जीवन में दाल भात न खा पाएं वे अवश्य भूत बनते हैं। ऐसी कई प्रमाण मिले हैं।
दालों का धुली होना भी एक अलग क्वालिटी है पर धुली का ध बदस्तूर कीमतों को धक्का दिए जा रहा है, वो अनुभूत है पर दुखद है। न जाने कभी सत्ता से कभी घर से किस किस को धकेल कर मानेगा।
वैसे एक सच्चाई जान लें कि एक व्यक्ति कितनी दाल खाता है, रेट बढ़ने के बाद तो मुट्ठी भर दाल भी नहीं खा पाता है। एक मुट्ठी दाल पूरे परिवार के लिए काफी हो रही है जबकि रेट बढ़ने से पहले दो या तीन मुट्ठी में काम चल रहा होगा। वो तो पानी भी खुलकर नहीं मिल रहा है नहीं तो दाल में पानी दे देकर काफी अतिथियों तक को निबटाया जाता रहा है। आपने सुना ही होगा तीन बुलाए तेरह आए और बुलाने वाले को अपनी तेरहवीं नहीं करवानी है तो दे दाल में पानी। पर आजकल पानी भी जान पड़ता है, हड़ताल पर है। जहां होना चाहिए वहां नहीं होता और जहां नहीं होना चाहिए वहां भरपूर होता है। दाल और पानी में यही भेद है। आप चाहें तो दाल को अधिक दाम देकर अपना बना सकते हैं, गोदामों में बसा सकते हैं पर अगर आपने पानी के साथ ऐसा किया तो वो जरूर आपको डुबा ही देगा, या कह सकते हैं कि डुबाकर भी मान जाए तो खैर मनाइयेगा।
अब ये सलाह दी जा सकती है दालों को दिल पर न लें। इससे दिल का खतरा बढ़ रहा है। जल्द ही दालों का खाना डॉक्टरों द्वारा सलाहा जाएगा और डॉक्टरों के लिए भी कमाई का एक नया जरिया बन जाएगा। आप सिर्फ पांच दाने मूंग की दाल का दिन में एक बार सेवन करें अथवा आपके नेत्रों की ज्योति के विकास के लिए दिन में तीन बार अरहर की 100 ग्राम कच्ची दाल का दर्शन मुफीद रहेगा। अभी अरहर में अरहरापन आया है। जल्दी ही चने की दाल में चनापन (कड़ापन), मसूर की दाल (कसूरवार) बनाएंगी। अवाम को इनसे न उलझने की चेतावनी दी जाती है। कोई आश्चर्य नहीं दाल की मौजूदगी किराना दुकानों से हटकर दवाई की दुकानों में कब्जा जमा ले।
और साज सज्जा वाले चिल्ला चिल्लाकर कह रहे हैं कि उबले चावलों के उपर दस दाने अरहर के सजाने से जो अरहरापन आ जाता है। वो सोने के हार में रत्नों के पचास नग सजाने में भी नहीं आता। इसलिए दाल अब दलित नहीं रही। गरीबों की दाल अब अमीरता के अमरत्व को प्राप्त कर चुकी है। सोने की कीमतों से मुकाबला करती दाल अब सोने को मात दे रही है। जल्द ही बाजारों में दालजडि़त आभूषण और परिधान अपनी पैठ जमायेंगे। आढ़तियों के कब्जे से निकल फैशन के मंचों पर लहराती दाल इतराने लगे तो दाल का दोष नहीं। दोष दाल को दाल न रहने देने वालों का है। इससे राजनीति करने वालों का है। दाल की अमरता ही स्वर्णता है और इसे इसके वर्तमान सिंहासन से उतारना किसी के बूते की बात नहीं और यही अरहरापन लुभा गया है मुझको।
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अविनाश वाचस्पति
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अविनाश वाचस्पति Avinash Vachaspati
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तारीख 19 मई 2010
2 comments:
19 May 2010 at 17:29
महँगाई की मार में दाल की लस्ल कौन देखता है!
2 September 2010 at 18:35
अविनाश भाई ,अरहर की दाल के भाव तो बेशक कुछ चढ़ गए लेकिन इस व्यंग्य को पढ़कर आनंद आगया आप को हार्दिक बधाई.
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