प्रिय ब्लागर मित्रगणों,
आज वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में श्री M VERMA की रचना पढिये.
लेखक का संक्षिप्त परिचय :
मेरा परिचय :
नाम : M Verma (M L Verma)
जन्म : वाराणसी
शिक्षा : एम. ए., बी. एड (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)
कार्यस्थल : दिल्ली (शिक्षा विभाग, दिल्ली सरकार) अध्यापन
बचपन से कविताओं का शौक. कुछ रचनाएँ प्रकाशित / आकाशवाणी से प्रसारित. नाटकों का भी शौक. रस्किन बांड की ‘The Blue Umbrella’ आधारित नाटक ‘नीली छतरी’ में अभिनय (जश्ने बचपन के अंतर्गत). भोजपुरी रचनाएँ भी लिखी है. दिल्ली में हिन्दी अकादमी द्वारा आयोजित ‘रामायण मेले’ में भोजपुरी रचना पुरस्कृत. हिन्द युग्म जनवरी मास 2010 की कविता प्रतियोगिता में प्रथम स्थान.
ब्लाग : जज्बात एवम यूरेका
पीना और जीना
पीना और जीना दोनों कला है. जीने की कला तो कमोबेश हर कोई जानता है पर पीने की कला हर कोई नहीं जानता है. पारंगत तो नहीं हूँ पर पीने की कला का ‘अवलोकन और अनुभव’ का काकटेल परोसना चाहता हूँ.
यूँ तो जिन्दगी की शुरूआत ही पीने से होती है. माँ की ममता और जीवन दायिनी दुग्धपान हमें पहला ‘पीना’ सिखाती है. इस अवस्था में बालक नैसर्गिक रूप से पीना सीख जाता है और फिर यह वह अवस्था होती है जो सीखने-सिखाने से परे है.
दूसरी अवस्था वह होती है जब माँ का नैसर्गिक स्नेह पान करते हुए भी वह बाप का आंशिक रूप से रक्तपान शुरू कर देता है. माँ की छत्रछाया में वह कई बार पिटने से बच जाये तो बच जाये (पढाई में पिछड़ने के कारण, देर तक घर से बाहर रहने के कारण और भी बहुत से कारणों से और कभी कभी अकारण भी) पर दोनों के (माँ और बेटे के) सामूहिक प्रयास से बेटा (बेटियाँ अपवाद हैं) बाप का खून पीता ही रहता है. ध्यान देने की बात है कि यहीं से बेटे में परजीवीपन के लक्षणों का सूत्रपात होता है.
शादी के बाद जब वही बेटियाँ जो माँ-बाप के घर निरीहता के गुण धारण करके सादगी से रहती रही होती हैं उस माँ के बेटे के रक्तपान में (अपने पति) स्वाद का प्रथम अनुभव करती हैं. प्रथमत: यह अनायास होता है फिर आदत बन जाती है.
आधुनिक शोध बताता है कि रक्तपान के शिकार अपने रक्त की पूर्ति पानी, लेमन या अन्य किसी साफ्ट पेय से नहीं कर पाते हैं इनके लिये इसके लिये सरकारी स्तर पर थोड़े से सुविधाशुल्क के साथ क्षतिपूर्ति कार्यालय खोले गये हैं जिसे ‘मदिरालय’, ‘शराबखाना’, ‘मैखाना’ (नाम पर न जायें यहाँ खाना कम पीना ज्यादा होता है), ‘बार’ आदि अनेक नामों से जाना जाता है. यहाँ कोई भी थोड़ी मात्रा में ‘मुद्राह्रास’ करके रक्त की पूर्ति कर सकता है और तो और कभी कभी वह रक्तपान करने में फिर से समर्थ भी हो सकता है. यहाँ अर्थशास्त्र का उपभोग का नियम लागू नहीं होता जहाँ मदिरापान के साथ मदिरा की आवश्यकता घटती जाये वरन बढ़ती जाती है.
पीने के इस प्रक्रिया में अगर साकी रहे तो उत्प्रेरक का काम करती है. पीने की उपलब्धि ‘बहकना’ है. बहकना और चहकना सहोदर हैं. बहका हुआ इंसान कुछ भी कर सकता है. बहकने के बाद भी पीना जारी रखें तो जिस अनुभूति के लिये लोग योग और ध्यान करते है उससे भी बड़ी और सात्विक अनुभूति नाली में गिरने (कभी कभी जानबूझ कर) के बाद मिलती है. समरसता का जीवन दर्शन यहाँ उत्पन्न होता है. यहाँ जब तक कुत्ता मुँह न चाट जाये पड़े रहें. उठे भी तो इस तरह जैसे धरती को कुचल कर अंतरिक्ष यात्रा पर निकले है.
कभी कभी बिना पीये भी इस अनुभूति को प्राप्त किया जा सकता है, इस पर फिर कभी व्याख्यान दूँगा. मुँह जब पीने से थक जाये तो आँखो से कैसे पीया जाये यह भी फिर कभी. अब तो मेरे पीने का समय हो गया.
जाते जाते एक हौसला आफजाई : Wine शब्द Win जैसा नहीं लगता क्या??

जिन्दगी में जो पीया नहीं
वो जिया क्या?
पीकर भी बहक न जाये
तो पीया क्या?
9 comments:
31 May 2010 at 17:07
वर्मा जी.... को शत शत नमन.....
31 May 2010 at 17:35
"वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता मे : श्री M Verma" जी ने सुन्दर पोस्ट लगाई है♥3
बधाई!
31 May 2010 at 18:13
पी लिया करते हैं कभी जीने की तमन्ना में
डगमगाना भी जरुरी है संभलने के लिए।
बहुत अच्छे महाराज
शुभकामनाएं
31 May 2010 at 19:33
बहुत सुन्दर
मजेदार
31 May 2010 at 20:27
बहुत बढ़िया लेख....बस पढ़ कर ही आनंद ले लिया...बाकी तो पीने और जीने की कला आप ही जाने
31 May 2010 at 21:16
Wine शब्द Win जैसा नहीं लगता क्या??
Wine शब्द Water जैसा नहीं लगता क्या ?? जल ही जीवन है ,है की नहीं इसी पोस्ट पर जवाब चाहिए .....
उम्दा प्रस्तुती के लिए ****
31 May 2010 at 23:41
वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में श्री M VERMA जी का स्वागत है इस बेहतरीन रचना के साथ.
14 June 2010 at 07:40
ये तो कई तरह के पीने हो गए जी...:)
16 November 2010 at 19:10
aur aaya nahin paseena
to man bhaye kyon haseena.
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